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१.
विषाद जनक पदार्थ द्वारा शरीरमें होने वाली क्रिया का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि ये पदार्थ शरीरके किसी न किसी एक या अधिक दोषोंको उक्लिष्ट करते हैं । कभी इनके तीव्र और शीध्र प्रकोपसे आशुमरण होता है । कभी इनके मन्द प्रभावसे शीतपित्त, कोढ, शोथ, उन्माद, मच्छौ,
आदि रक्तदुष्टि विकार उत्पन्न होते हैं । ये सभी विकार मन्दविष अथवा कालान्तर प्रकोपी विषके परिणाम हैं ।
आयुर्वेदमें स्वभावत: विरुद्ध पदार्थोमे विषका उल्लेख है । इस विष के स्थावर और जंगम दो मुख्य भेद हैं ।
इन दो प्रकारोके विषके दुर्बल होने पर, देहसे सम्पूर्णरूपसे बाहर न निकलने पर, औषध आदि से विष विकारके दबाये जाने पर, परंतु ऋतु अन्नपान आदि सहायक गुणों से बल मिल जाने पर शरीरमें उनके कालान्तर में प्रकोपक लक्षण स्वरूप विकार उत्पन्न होते हैं । इनको दूषीविष कहा गया है।
इन दो प्रकारों के विष के उपरांत एक गर नामका एक और प्रकार भी है । यह गर नामक विष स्वभावतः हितकर पदार्थोंके भी अनुचित संयोग अथवा संस्कारसे उत्पन्न होता है । अतः इस प्रकारके विषको संयोगज अथवा कृत्रिम विष कहा गया है । अनेक प्रकारके आहार द्रव्य स्वभावत: गुणयुक्त तथा हितकारी होते हुए भी अनुचित संयोग अथवा संस्कार से विष प्रभाव उत्पन्न करने लगते हैं । इस प्रकार अन्न के भी कभी विष बनने और विषके भी कभी रसायन बननेका मुख्य आधार उचितानुचित संयोग और संस्कार ही है । इसीका शास्त्रकारोंने युक्ति और अयुक्ति शब्दों द्वारा उल्लेख किया है।
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