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१४.
अनुपानम जरी ( विषयनिरूपण )
इस ग्रन्थका प्रमुख विषय विष-चिकित्सा है । इस विविध प्रकारके विषोंसे सम्बन्धित उल्लेख इस ग्रन्थके प्रारंभ में इस प्रकार किया गया है ।
धातुस्तथोपधातुश्च विषं स्थावरजंगमम् । तद्विकारस्य शान्त्यर्थ वक्ष्येऽनुपानम जरीम् ॥ अपक्वपक्वधातूनां विप दंष्ट्रिणभक्षणात् । तथोपधातोश्च तद्वत् विकारशान्तिरुच्यते ॥
- अनुपानमंजरी प्रथम समुदेश श्लोक २-३ सामान्य रूपसे विषकी व्याख्या शास्तकारोंकी सम्मतिमें यह है कि केवल खानेसे या किसी प्रकारके सेवनसे ही नहीं अपितु केवल नाम श्रवण अथवा दर्शनमासे भी विषाद उत्पन्न करने वाले पदार्थको विष कहना चाहिये ।
विषकी संरचनाकी द्रष्टिसे अग्नि- मारुतगुणभूयिष्ट, व्यवायी, बिकाशी, तीक्ष्णगुण युक्त पदार्थ है । यह विष स्वाभाविक रूपसे ही. शरीर के लिए महित अथवा विरुद्ध है ।
. चरकसंहिताकारने विरुद्ध द्र व्यकी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि विष द्रव्य देह धातुओं से प्रत्यनीक होनेके कारण देह विरोधी प्रभाव उत्पन्न करता है । विष-शस्त्रा-क्षार अग्नि आदि पदार्थ स्वाभाविक रूपसे ही जीवन क्रियाके विरोधी होते हैं । जल दूध घृत आदि हितकारी पदार्थ स्वाभाविक रूपसे ही जीवन क्रियाके अनुकूल होने से प्रसादजनक हैं । जीवन क्रियाके विरोधी पदार्थको विषाद जनक कहते हैं ।
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