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Achar
अंश मात्र का भी स्पर्श न करनेका सावधान प्रयत्न किया है । इसी लेखकने ग्रन्थके प्रतमें अपने गुरु जनोंका परिचय देते समय जैनधर्म उसके अवान्तर गच्छ और गुरुजीको गुरुजी (गोरजी) कहने के प्रचार आदिका सम्पूर्ण उल्लेख किया है। इस गुरु परंपराके जैन धर्मावलम्बी होने में और इस विषयके यथावस्थित वर्णन और प्रदर्शनमें लेखकको कोई संकोच का अनुभव न होने से लेखक स्वयं वैदिक धर्मावलम्बी होने पर भी जैन धर्मकी गुरु परंपरा के शिष्य थे।
इस प्रकार स्वयं वैदिक धर्मावलम्बी और जैनधर्मावलम्बी गुरु परंपरा के शिष्य श्री आचार्य विश्रामजी स्वयम उदार चरित और परम विद्वान पुरुष थे।
आचार्यश्री विश्रामजी आयुर्वेदके आकर ग्रन्थों से परिचित थे
न नक्तं दधि भुञ्जीत --- चरक सू. प्र. १/६१
__व्याधिनिग्रह श्लो. २०९ योगराज इति ख्यातो योगोऽयममतोपत्रमः चरक चि. अ-१६/६५
व्याधिनिग्रह श्लो. २१२ वाते साज्यरसोनकः अनुपानमंजरी ५/३१ लशुनः प्रभंजनम्
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/५२ धनपर्पटकं ज्वरे
अनुपानमंजरी ५/३१ मुस्तापर्पटकं ज्वरें
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४८ ग्रहण्यां मधितम्
अनुपानमंजरी ५/३२ मथितम् ग्रहण्याम
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/५० हेम विषे
अनुपानमंजरी ५/३२ गरेष हेम
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४० वमिषु लाजाः
मनुपानमंजरी ५/३०
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