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Achar
देहकी स्थिति, दोष की स्थिति, औषधकी मात्रा तथा नित्यग-आवस्थिक कालकी स्थिति इत्यादिका विचार करके उचित मात्रामें उचित कल्पनामें द्रव्य के प्रयोगको युक्ति और इसके विपरीत अयुक्ति कहते है।
विषका अमृतीकरण युक्तिका उदाहरण और अन्न औषध आदि अमृत रूप पदार्थोका विषरूपमें परिणाम अयुक्तिका उदाहरण है।
. प्रस्तुत प्रकारोमें स्थावर और जंगम विषका अनुपानमंजरीमे स्पष्ट उल्लेख किया गया है। दंष्ट्रिीविष का भी जंगम विष में समावेश किया है । पक्व-अपक्व धातु-उपधातु भक्षण जन्य विषका समावेश शास्त्रोक्त 'गर' विषमें किया जा सकता है। आचार्यश्री विश्रामने गर शब्दको नाम माधसे कहीं भी उल्लेख नहीं किया, यह आश्चर्यकी बात है।
इन्होंने विषजन्य विकारोंकी सूचीमें शोथ पांडु आदिका निर्देश दूषविष अथवा कालान्तर प्रकोपी विषजन्य विकारों के रूप ही किया है।
विष के तत्काल प्रभाव दाह, शूल, रक्तस्त्राव, मूर्छा, मृत्युकी चिकित्साका यहां पर (सर्प- वृश्चिक-माखु प्रादिके विषज विकारों को छोडकर) वर्णन करना ग्रन्थकारको अभीष्ट नहीं प्रतीत होता।
दूषीविषका भी नामोल्लेख न होना एक आश्चर्यकी बात है।
इस ग्रन्थके लेखक प्राचार्यश्री विश्रामजी का प्रमुख रूपसे काय चिकित्सक होना इनके व्याधिनिग्रह और अनुपानमंजरी नामक दो ग्रन्थों के वर्यालोचनसे निश्चित होता है।
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