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लाजारछदिषु
कुटजोऽतिस्ती
कुटजोऽतिसारे
वृषोऽत्र पित्ते
कृमी कृमिघ्नः
कृमिषु कृमिघ्नम्
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अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४८
अनुपान मंजरी ५ / ३२
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४९
अष्टांगहृदय उत्तरतंत्र अ. ४०/४९
अनुपान मंजरी ५/३२
अष्टांगहृदय उत्तरत्रंत अ. ४०/४९
इस उक्त विवरण से यह प्रतीत होता है कि अनुपानमंजरी के लेखक आयुर्वेद आकर ग्रन्थोंसे पूर्णतः परिचित थे । इन्होंने आयुर्वेद उपचार पद्धति और इस शास्त्र के सिद्धान्तोंका कथन इन्हीं आकर ग्रन्थोंकी शब्दावली में किया है । सुश्रुतसंहितामें निर्दिष्ट अग्निकर्म और किसी भी प्रकारकी ग्रन्थिको भेदन क्रिया का उल्लेखन अनुदान मंजरीके पंचमसमुद्देशमें डंभन क्रिया के रूपमें और चतुर्थ समुद्देशमें आखुविषजन्य ग्रन्थिके विस्फोटनके रूपमें किया है ।
पंचम समुद्देशमें वर्णित रसशास्त्र से सम्बद्ध खनिज या धातु और उपधातु आदि द्रव्योंके शोधन - मारण एवं उनके श्रौषधके रूपमें उपयोग के विधानसे स्पष्टत: प्रतीत होता है कि अनुपानमंजरीकार आचार्य विश्रामजी रसशास्त्र के आकर एवं उपजीव्य ग्रन्थोंसे पूर्णितः परिचित तथा अवगत थे ।
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