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अनेकान्त 60/1-2
क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदा भवन् । वैश्याश्च कृषि वाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः।। तेषां सुश्रषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्यकारवः। कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ।।
वही 16/184,185 उस समय जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहते थे और जो उनकी सेवा, सुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे। वे शूद्र दो प्रकार के थे एक कारु और दूसरे अकारु। धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे। कारु शूद्र भी स्पृश्य और अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये है। उनमें जो प्रजा के बाहर रहते है उन्हें अस्पृश्य अर्थात् स्पर्श करने के अयोग्य कहते है और नाई वगैरह को स्पृश्य अर्थात् स्पर्श करने के योग्य कहते हैं।
इस प्रकार प्रजा उस समय अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्य रूप से करती थी। अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोडकर कोई दूसरी आजीविका नहीं करता था इसलिए उनके कार्यों में संकर (मिलावट) नहीं होता था। उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान आदिनाथ की आज्ञानुसार होते थे। कर्मभूमि की रचना करने वाले भगवान वृषभदेव ने राज्य पाकर महाराजा नाभिराय के समीप ही प्रजा का पालन करने के लिए इस प्रकार प्रयत्न किया। भगवान ने सबसे पहले प्रजा की सृष्टि (विभाग आदि) की फिर उसकी आजीविका के नियम बनाये और फिर वह अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सके इस प्रकार के नियम बनाये। इस तरह वे प्रजा का शासन करने लगे। उस समय भगवान ने अपनी दोनों भुजाओं से शस्त्र धारण कर क्षत्रियो की सृष्टि की थी अर्थात् उन्हें शस्त्रविद्या का उपदेश दिया था सो ठीक ही है, क्योंकि जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं।