Book Title: Anekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ जैन संस्कृत पुराणों में वर्णाश्रम धर्म - डॉ. अशोक कुमार जैन भारतीय परम्परा में जैनधर्म अपनी उदारता और व्यापकता के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि व्यक्ति स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बन के कारण वह अन्य सब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म गिना जाता है। विश्व में जितने धर्म हैं उनकी उत्पत्ति प्रायः अवतारी पुरुषों के आश्रय से मानी गई है किन्तु जैन और बौद्ध ये दो धर्म इसके अपवाद हैं। षट्कर्म व्यवस्था और तीन वर्ण- साधारणतः आजीविका और वर्ण ये पर्यायवाची नाम हैं, क्योंकि वर्णों की उत्पत्ति का आधार ही आजीविका है। जैन पुराणों में बतलाया है कि कृतयुग के प्रारम्भ में कल्पवृक्षों का अभाव होने पर प्रजा क्षुधा से पीड़ित होकर भगवान ऋषभदेव के पिता नाभिराज के पास गई। प्रजा के दुःख को सुनकर नाभिराज ने यह कह कर कि इस संकट से प्रजा का उद्धार करने में भगवान ऋषभदेव विशेषरूप से सहायक हो सकते है, उसे उनके पास भेज दिया। क्षुधा से आर्त्त प्रजा के उनके सामने उपस्थित होने पर उन्होंने उसे असि, मषि, कृषि, विद्या वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। इससे तीन वर्षों की उत्पत्ति हुई। आचार्य जिनसेन ने लिखा है उत्पादितास्त्रयो वर्णास्तदा तेनादिवेधसा, क्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ।। आदिपुराण 1/16-183 उसी समय आदिब्रह्मा भगवान वृषभदेव ने तीन वर्षों की स्थापना की थी जो कि क्षतत्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के दारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते थे। और भी लिखा है

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