Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ १०, वर्ष २८, कि.१ अनेकान्त समान बाह्याडम्बर के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं। वे तो शुष्क हठयोग को जैनों ने अवश्य स्वीकार नहीं किया है। पारमा के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विशुद्ध कबीर के समान जैन कवि भी समदरसी हुए है और साधन को ही अपनाने की बात करते हैं। विद्यारूपिणी प्रेम के खूब प्याले पिये हैं । तभी तो उनका दुविधा भाव माया का सम्बन्ध मुनियों के चारित्र से जोड़ा जा सकता जा सका । कबार जा सका । कबीर ने लिखा है-- है । कबीर और जैनों की माया में मलभत अन्तर यही है पाणी ही त हिम भया, हिम है गया बिलाइ। कि कबीर माया को ब्रह्म की लीला की शक्ति मानते है जो कुछ या सोई भया, अब कछ कह्या न जाइ। बनारसीदास ने भी ऐसा ही कहा है-- पर जैन उसे एक मनोविकार जन्य कर्म का भेद स्वीकार पिय मोरे घट, मैं पिय माहि, करते हैं। जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि ॥ ___ माया अथवा मनोविकारों से मुक्त होना ही मुक्ति "राम की बहुरिया" मानकर ब्रह्म का साक्षात्कार को प्राप्त करना है। उसके बिना संसार-सागर से पार किया है। पिया के प्रेमरस में भी कबीर खूब नहाये नहीं हुमा जा सकता। इसलिए "पापा पर सब एक है। बनारसीदास और प्रानन्दधन ने भी इसी प्रकार समान, तब हम पाया पद निरबाण" कहकर कबीर ने दाम्पत्यमुनक प्रेम को अपनाया है। कबीर के समान ही मुक्ति-मार्ग को निर्दिष्ट किया है। जैन कवियों ने इसे छीहल भी पाने प्रियतम के विरह से पीड़ित है । प्रानन्दही भेदविज्ञान कहा है और वही मोक्ष का कारण माना धन की प्रात्मा तो कबीर से भी अधिक प्रियतम के वियोग गया है। कबीर और जैन, दोनों संसार को दु.खमय, में तड़पती दिखाई देती है। कबीर की चुनरिया को क्षणिक और अनित्य मानते है। नरभव-दुर्लभता को भी उसके प्रीतम ने संवारा' और मगबती दास ने अपनी दोनों ने स्वीकार किया है। दोनों ने ही दुविधाभाव का चुनरिया को इष्टदेव के रंग में रगा। कबीर और बनाअन्त करके मुक्तावस्था प्राप्त करने की बात कही है। रसीदास दोनों का प्रेम अहेतुक है। दोनो की पत्नियों कबीर की जीवन्मुक्त और विदेह भवस्था जैनों की केवली अपने प्रियतम के वियोग मे जल के बिना मछली के समान और सिद्ध अवस्था कही जा सकती है। तड़फी है। आध्यात्मिक विवाह रचाकर भी वियोग की स्वानुभति को जनों के समान निणी सन्तों ने भी सर्जना हुई है। ब्रह्ममिलन के लिए निर्गुण सन्तों और महत्त्व दिया है। कबीर ने ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत् जैन कवियो ने खूब रगरलियां भी खेली हैं। माना है और कहा है कि ब्रह्म स्वयं ज्ञानरूप है, सर्वज्ञ र कहा है कि ब्रह्म स्वय ज्ञानरूप है, सर्वज्ञ इस प्रकार निर्गुणियां सन्तों और मध्यकालीन हिन्दी व्यापक है और प्रकाशित है-अविगत अपरंपार ब्रह्म, जैन कवियों ने थोड़ी बहुत असमानतानों के साथ समान ग्यान रूप सब ठाम'।" जैनों का विशुद्ध पात्मा भी चेतन रूप से गुरू की प्रेरणा पाकर ब्रह्म का साक्षात्कार किया गुण रूप है और ज्ञान-दर्शन शक्ति से समन्वित है। इसी है। इसके लिए उन्होने भक्ति अथवा प्रपत्ति की सारी ज्ञान शक्ति से मिथ्याज्ञान का विनाश होता है। कबीर विधानों का प्राश्रय लिया है। जैन साधकों ने अपने इष्ट की 'पातमदृष्टि' जैनो का भेदविज्ञान अथवा प्रात्मज्ञान देव की वीतर गता को जानते हुए भी श्रद्धावशात् उनकी है। बनारसीदास, द्यानतराय मादि हिन्दी जैन कवियों साधना की है । 00 ने सहजभाव को भी कबीर के समान अपने ढग से लिया न्यू एक्सटेन्सन एरिया, है । अष्टांग योगो का भी लगभग समान वर्णन हुआ है। सदर, नागपुर १. कबीर ग्रन्थावली, पृ० १४५ ६. बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, १६ २. नाटक समय सार, निर्जरा द्वार, पृ० २१० ७. आनन्दधन बहोत्तरी, ३२-४१ ३. कबीर ग्रन्थावली, पृ० २४१ ८. कबीर-डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० पू८७ ४. कबीर ग्रन्थावली, पृ० १०० ९. चनरी, हस्तलिखित प्रति; अपभ्रंश और हिन्दी में ५. कबीर ग्रन्थावली, परचा को भंग, १७ जैन रहस्यवाद, पृ०१०

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