Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ ८, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त स्थित प्रात्मतत्त्व को अन्तर्मुखी दृष्टि से ही देखा जा के परिपालन से प्राप्त होता है'। जायसी ने भी जैनों के सकता है पर माया इस प्रात्मदर्शन में बाधा डालती है। समान तोता रूप सद्गुरु को महत्त्व दिया है। यही पद्मामाया को इसीलिए ठग, बटमार आदि जैसी उपमायें भी बती रूपी साध्य का दर्शन कराता है। बी गई हैं। संसार मिथ्या माया का प्रतीक है। यह सब जायसी ने विरह को प्रेम से भी अधिक महत्त्व दिया प्रसार है। है। इसलिए जायसी का विरह-वर्णन साहित्य और दर्शन जैनदर्शन में माया-मोह अथवा कर्म को साध्य प्राप्ति के क्षेत्र में एक अनुपम योगदान है। उत्तरकालीन जैन भक्त में सर्वाधिक बाधक कारण माना गया है। इसमें प्रासक्त साधक भी इस विरह की ज्वाला में जले है। बनारसीदास व्यक्ति ऐन्द्रिक सुख को ही यथार्थ सुख मानता है। यहां और प्रानंदधन को इस दृष्टि से नही भुलाया जा सकता। माया और शैतान जैसे पृथक् दो तत्त्व नहीं माने गये। जायसी के समान ही हिन्दी जैन कवियों ने भी प्राध्यासारा संसार माया और मिथ्यात्वजन्य ही है। मिथ्यात्व त्मिक विवाह और मिलन रचाये है । जायसी ने परमात्मा के कारण ही इस क्षणिक संसार को जीव अपना मानता को पति रूप माना है पर वह है स्त्री-पद्मावती । परन्तु है। जायसी ने जिसे अन्तरपद अथवा अन्तर्दर्शन कहा है, जैन साधकों-भक्तों ने परमात्मा को पति रूप में स्वीकार जनधर्म उसे प्रात्मज्ञान अथवा भेदविज्ञान कहता है । जब किया है पर उसका रूप स्त्री नहीं, पुरुष रहा है। बनातक भेद विज्ञान नही होता तब तक मिथ्यात्व, माया, कर्म रसीदास का नाम दाम्पत्यमूलक जैन साधकों में अग्रणी है। अथवा अहंकार प्रादि दूर नहीं होते। जायसी के समान जायसी और हिन्दी जैन कवियों की वर्णन शैली में यहां जीव और प्रात्मा, दो पृथक् तत्त्व नही है। जीव ही अवश्य अन्तर है। जायसी ने भारतीय लोक कथा का प्रात्मा है। उसे माया रूपी ठगिनी जब ठग लेती है तो प्राधार लेकर एक मरम रूपक खड़ा किया है और उसी वह संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाता रहता है। के माध्यम से सूफी दर्शन को स्पष्ट किया है। परन्तु जैन वासना को यहां भी संसार का प्रमुख कारण माना गया साहित्य के कवियों ने लोक कथाओं का प्राथय तो लिया है। मिथ्यात्व को दुःखदायी और पात्मज्ञान को मोक्ष का है परन्तु उनमे वह रहस्यानुभूति नहीं जो जायसी में कारण कहा गया है। दिखाई देती है। जैनो ने अपने तीर्थदुर नेमिनाथ के जैन योग साधना के समान सूफी योग साधना भी है। विवाह का खुव वर्णन किया और उनके विरह में राजुल मष्टांगयोग और यम-नियम लगभग समान है। जायसी रूप माधक की प्रात्मा को तडफाया भी है परन्तु मिलन के का योग प्रेम से संबलित है पर जैनयोग नही। जायसी ने माध्यम से प्रनिर्वचनीय आनंद की प्राप्ति में प्रस्फुटन को राजयोग माना है, हठयोग नहीं। जैन भी हठयोग को भल गये जिसे जायसी ने अपनी जादूभरी कलम से प्राप्त मुक्ति का साधन नहीं मानते। सूफियों में जीवन मुक्ति हा मानत । सूफिया म जावन मुक्ति कराया है। वहा पद्मावती रूपी परमात्मा भी रत्नसेन और जीवनोत्तर मुक्ति, दोनों मुक्तियो का वर्णन मिलता रूपी प्रियतम साधक के विरह से प्राकुल-व्याकुल हुई है। है। जीवन मुक्ति दिलाने वाली भावना है जो फना और जैनों का परमात्मा साधक के लिए इतना तड़पता हुमा बका को एक कर देती है। फना मे जीव की सारी सांसा दिखाई नही देता। वह तड़फे भी क्यो ? वह तो बेचारा रिक आकांक्षायें, मोह, मिथ्यात्व प्रादि नष्ट हो जाते हैं। बीतरागी है। रागी प्रास्मा भले ही तड़पती रहे । जैनधर्म में इसी अवस्था को वीतराग अवाया कहा गया इस प्रकार सूफी और रहस्यभावना के तुलनात्मक है। इसी को अद्वैतावस्था भी कह सकते है, जहां आत्मा अध्ययन से यह पता चलता है कि सूफी कवि जैन साधना अपनी परमोच्च अवस्या में लीन हो जाती है। यही से बहत कुछ प्रभावित रहे है। उन्होंने अपनी साहित्यिक निर्वाण है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सक्षमता से इस प्रभाव को भलीभांति अन्तर्भूत किया है। १. प्रवचनसार, ६४; बनारसी विलास, ज्ञानबावनी १६-३० ३. पंचास्तिकाय, १६२, नाटक समयसार, संवरद्वार, ६, २. उत्तराध्ययन, २०-३७; हिन्दी पद संग्रह, पृ. ३६ पृ. १२५ नाटक समयसार, जीवद्वार, २३

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