Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ निर्गुण रहस्य भावना और जैन रहस्य भावना D डा० श्रीमती पुष्नलता जैन निर्गुण का तात्पर्य है-पूर्ण वीतराग अवस्था । कबीर कबीर की माया, भ्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ, मादि निर्गुणी सन्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गण और मोह, वासना, प्रामक्ति प्रादि मनोविकार मन के परिधान निराकार माना जाता है। कबीर ने निर्गुण के साथ ही है, जिन्होने त्रिलोक को अपने वश मे किया है। यह माया सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसका अर्थ यह है ब्रह्म की लीला की शक्ति है। इसी के कारण मनुष्य कि कबीर का ब्रह्म निराकार और साकार, द्वत और दिग्भ्रमित होता है। इसीलिए इसे ठगौरी, ठगिनी, छलनी, अद्वैत तथा भावरूप और प्रभावरूप है। जैसे जैनों के नागिन आदि कहा गया गया है। कबीर ने व्यावहारिक अनेकान्त में दो विरोधी पहल अपेक्षाकृत दष्टि से निभ दृष्टि से भाषा के तीन भेद माने है - मोटी माया, झीनी सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी है। कबीर पर जाने माया और विद्यारूपिणी। मोटी माया को कर्म कहा गया अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, है। इसके अन्तर्गत धन, सम्पदा, कनक, कामिनी आदि जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्टतः कबीरदास की सत्या- पाते है। पूजा-पाठ प्रादि बाहाडम्बर में उलझना भी न्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया। उन्होने अनुभूति के ऐसे कर्म है जिनसे व्यक्ति परमपद की प्राप्ति नहीं कर माध्यम से उसे पहिचाना। जैन परम्परा में भी प्रात्मा पाता। झीनी माया के अन्तर्गत माशा, तृष्णा, मान आदि के दो भेद मिलते है। निष्कल और सकल'। इसे ही हम मनोविकार पाते है। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से क्रमशः निर्गुण और सगुण कह सकते है। रामसिंह ने सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते है। यह प्रात्मा निर्गुण को ही नि संग कहा है। उसे ही निरंजन भी का व्यावहारिक स्वरूप है। कहा जाता है। दूसरे शब्दो में हम कह सकते हैं कि जैनों का मिथ्यात्व अथवा कम कबीर की माया के पञ्चपरमेष्ठियों में अर्हन्त और सिद्ध क्रमश: सगुण और सिद्वान्त के समानार्थक है। कबीर के समान जन कवियों निगुण ब्रह्म है जिसे कबीर ने स्वीकार किया है । बनारसी. ने भी माया को ठगिनी कहा है। कबीर की मोटी माया दास ने इसी निगंण को शुद्ध, बद्ध, अविनाशी और शिव जैनों का कर्म है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी संज्ञाओं से अभिहित किया है। रहती है। जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कवीर के : १. सतों, धोखा कांसू कहिये, उनकी कथायें जहां एक तरफ लोकिक दिखाई देती है, वहां रूपक के माध्यम से वही पारलौकिक दिखती है, जबकि गुण में निरगुण, निरगुण में गुण, जैन कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी इस शैली को नहीं बांट छाड़ि क्यू नहिये?-कबीर ग्रंथावली, पद १८० अपना सके। उनका विशेष उद्देश्य प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों २. जैन शोध और समीक्षा-पृ० ६२ का निरूपण करना रहा । जायसी का प्रात्मा और ब्रह्म ये ३. परमात्मप्रकाश, १-२५ दोनों पृथक्-पृथक तत्व है जो अन्तर्मुखी वृतियों के माध्यम ४. पाहुड़दोहा, १०० से अद्वैत अवस्था में पहुंचते हैं। जबकि जनों का परमात्मा ५. परमात्मप्रकाश, १.१६ मात्मा की ही विशुद्धतम स्थिति है। वहाँ दो पृथक्-पृथक् ६. बनारसी बिलास, शिवपच्चीसी, १-२५ तत्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान ७. कबीर ग्रंथावली, पु०९६६ तीव्रता होते हुए भी दिशायें अलग-अलग रहीं। ...... . वही, पृ० १५१ ९ . वही पृ० ११६

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