Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ सफी और जैन रहस्य-भावना Dडा. श्रीमती पुष्पलता जैन मध्यकालीन सुफी-हिन्दी जैन साहित्य के अध्ययन से कारण वह प्रकट नही हो पाता । जायसी ने भी गुरु रूपी ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी कवियो ने भारतीय साहित्य परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। जायसी का ब्रह्म और दर्शन से जो कुछ ग्रहण किया है, उसमें जैनदर्शन की सारे संसार में व्याप्त है और उसी के रूप से सारा संसार भी पर्याप्त मात्रा रही है। जायसी ब्रह्म को सर्व व्यापक, ज्योतिर्मान है।जनों का प्रात्मा भी सर्वव्यापक है और शाश्वत, मलख और अरूपी' मानते हैं । जनदर्शन में भी उसके विशुद्ध स्वरूप में संसार का हर पदार्थ दर्पणवत् मात्मा को अरस, अरूपी और चेतना गुण से युक्त मानते प्रतिभाषित होता है। है। सूफियो ने मूलत: प्रात्मा के दो भेद किये हैं- नक्स जायसी ने ब्रह्म के साथ अद्वैतावस्था पाने में माया और रूह । नफ्स ससार में भटकने वाला प्रात्मा है और मिलाउहीन) और शैतान (राघवदूत) को बाधक तत्व रूह विवेक सम्पन्न है' । जैन दर्शन में भी प्रात्मा के दो माना है। वासनात्मक प्रासक्ति ही माया है । शंतान स्वरूपों का चित्रण किया गया है-पारमार्थिक और प्रेम-साधना की परीक्षा लेने वाला तत्त्व है । पद्मावत में व्यावहारिक । पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा शाश्वत है नागमती को दुनियाँ धंधा, अलाउद्दीन को माया एवं और व्यावहारिक दृष्टि से वह संसार में भटकती रहती राघव चेतन को शैतान के रूप में इसीलिए चित्रित किया है । सूफी दर्शन मे रूह को विवेक सम्पन्न माया गया है। गया है। जायसी ने लिखा है- मैंने जब तक प्रात्मा जैनो ने प्रात्मा का गुण अनन्तज्ञान दर्शन माना है। सूफी स्वरूरी गुरु को नही पहिचाना, तब तक करोड़ो पर्दे बीच दर्शन मे रूह (उच्चतर) के तीन भेद माने गए हैं- में थे, किन्तु ज्ञानोदय हो जाने पर माया के सब आवरण कल्व (दिल) रूह (जान) सिर (अन्त.करण) । जनों ने नष्ट हो गए । प्रात्मा और जीवगत भेद नष्ट हो गया। भी प्रात्मा के तीन भेद माने है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा जीव जब अपने प्रात्मभाव को पहिचान लेता है तो फिर पौर परमात्मा सूफियों की आत्मा का सिर्र रूप जैनों का यह अनुभव हो जाता है कि तन, मन, जीवन सब कुछ अन्तरात्मा कहा जा सकता है । यही से परमात्म पद की वही एक प्रात्मदेव है । लोग अहकार के वशीभूत होकर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । संसार की सृष्टि का हर द्वैतभाव में फंसे रहते है, किन्तु ज्यों ही अहकार नष्ट हो कोना सूफी दर्शन के अनुसार ब्रह्म का ही प्रश है। पर जाता है, त्यों ही छाया और प्रातप वाला भेद नष्ट हो जैन दर्शन के अनुमार सृष्टि की संरचना में परमात्मा का जाता है। माया की अपरिमित शक्ति है । उसने कोई हाथ नहीं रहता । जैन दर्शन का प्रात्मा ही बिशुद्ध रतनसेन जैसे सिद्ध माधक को पदच्युत कर दिया । होकर परमात्मा बनता है अर्थात् उसकी प्रात्मा में ही अलाउद्दीन रूपी माया सदैव स्त्रियों में प्रासक्त रहती है । परमात्मा का वास रहता है पर अज्ञान के प्रावरण के छल-कपट भी उसकी अन्यतम विशेषता है । दश द्वार में १. जायसी ग्रन्थावली पृ. ३ ७. प्रवचनसार, प्रथम अधिकार; बनारसी विलास, २. समयसार, ४६; नाटक समयसार, उत्थानिका ३६-३७ ज्ञानबावनी, ४ ८. जायसी ग्रन्थमाला, पृ. ३०१ ३. हिय के जोति दीप वह सुझा-जायसी ग्रन्थावली, पृ ५१ ६. जब लगि गुरू हौं पड़ा न चीन्हा । ४ जायसी ग्रथावली, पृ १५६ कोटि अन्तरपट बीचहिं दीन्हा । ५. गुरू भोरे भोरे हिये दिये तुरंगम ठाट, वही पृ. १०५ जब चीन्हा तब और कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥ ६. नयन जो देखा केवल भा, निरमल नीर सरीर । 'हों हों करत धोख इतराहीं। जब भा सिद्ध कहाँ परछाहीं।। हंसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नगहीर ॥ वही, पृ. १०५, जायसी का पदमावत: काव्य और वही पृ. २५ दर्शन, पृ. २१६-२०. पावली तुरंग- रसरा

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