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किरण ११-१२]
श्री कुन्दकुन्द और समतन्भद्रका तुलनत्मक अध्ययन [३०६ भद एक बड़े वाग्मी गमक तथा तार्किक एवं त्यागी-योगी एक सूत्रबद्ध करनेकी बड़ी भारी जिम्मेदारी इन्होंने अपने होनेसे लोगोंकी, समयकी माँगको उन्होंने अच्छी तरह पूरा कंधों पर ली थी, जिसका प्रबल प्रमाण भावकाचार थकी किया है। परमागमका बोज, त्रिभुवनोंका गुरु जो अनेकान्त निर्मिति हैं। स्वय निश्चयमार्गका अवलम्बन करके (मनिपदउसको रक्षा वादियोंके झंझावायुसे करके इन्होंने वीरशासनकी में रहकर इन्होंने मानव-समाजका ध्यान महत्भक्रिकी मोर बड़ी सेवा को है। इन्होंने वीरशासनका सर्वोदय-तीर्थ सारे प्राकृष्ट किया, और लोगोंको सच्चे शत्रु-पाप और सम्वे प्रतिवादियोंको दिखलाया और कहा है
बंधु धर्मको पहिचान कराकर ज्ञाता बनानेका यत्न सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्यकल्पं,सर्वान्तशून्यचमिथोऽनपेक्षम किया है :सर्वापदामन्तकरं निरन्त, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ 'पापमरातिधर्मो बंधुर्जीवस्य चेतिनिश्चिन्वन् । ____ इसी सर्वोदय-तीर्थकी प्रवृत्ति उनकी अनुपम-संवा है। समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रवं भवति ॥ इसमें परस्पर विरोधी धर्म विधि-निषेध, द्रव्य-पर्याय, सामा
(रत्न क.) न्य-विशेष, एक-अनेक सभी धर्म अपनाए गये हैं । यह तीर्थ अपने शत्रु और बंधु की पहिचान बताकर ज्ञाता बनानेसर्व प्रापदाओंका अन्त-नाश करनेवाला, और सभी धर्मोंका से और अधिक लोक सेवा कौनसी है? वे कर्मयोगी ज्ञानउभय-मुख्य गौण रूपसे उदय करने वाला है। समन्तभद्रकी योगी और भक्रियोगी थे। कुन्दकुन्दकी सेवा वैयक्रिक पारमा यह अमूल्य देन तथा सेवा उस समयके लोगोंसे भाजके की सेवा कहलाती है । समंतभद्रकी सेवा समष्टिकीवैज्ञानिक तथा प्राधि भौतिक प्रस्त युग तक अत्यन्त महत्व- समाजकी सेवा कहो जाती है। इनके वचनामृतसे प्रभावित की तथा उपयोग की है।
होने वाले प्राचार्योंने इनकी प्राप्तमीमांसा जैसी छोटोमी उनकी योग्यता क्या थी इसका परिचय म्वयं इन्होंने पर अनुपम और प्रौद कृती को अपने भव्य प्रासादकी नीव राजसभामें दिया था, जो इस प्रकार है:
बनाया । अकलंकने अष्टशती लिखकर स्तम्भका सा आधार आचार्योंहं कविरहमहं वादिराट पण्डितोऽहं ।।
दिया। और वसुनन्दीने वृत्ति लिखकर, एकाएक पर्देक दैवज्ञोहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोऽहं ।। किवाड खोल दिये। श्री विद्यानन्दने अष्टसहस्त्री लिखकर राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया
तो प्रासाद शिखर ही पूर्ण किया है। यदि प्राप्तमीमांसाको माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहं ।।
'गंधहस्ति महाभाप्य' की मंगल-प्रस्तावना समझी जाय, तो इसमें अहंकार या आत्माभिमानकी उक्ति नहीं है। गंधहस्तीमहाभाप्य' किस कोटिका होगा, इमको कल्पना नहीं अपि तु उनके उपलब्ध अन्धोंसे कितने ही विशेषण यथार्थ की जा सकती। दुर्भाग्यसे इस अनमोल कृतिका लाभ हम सिद्ध हो चुके हैं। इतनी बढ़ी योग्यता होने पर जब भस्मक
लोगोंके नसीब नहीं। समन्तभद्रका गहरा प्रभाव तथा ऋण व्याधिसे त्रस्त हुए थे तब इन्हें परधर्मी शैव आदि राजाओं इनक प्रत
इनके प्रत्येक उत्तरवर्ती प्राचार्योन इनका गुणगान करके का कुछ दिनके लिये श्राश्रय लेना पड़ा । शरीर स्वस्थ होने
स्तुण स्तोत्रसे उऋण होनेका प्रयत्न किया है। पर ही इनको सिद्ध सरस्वतीका वहाँके राजा तथा लोगों पर इस प्रकार दोनों महाभागोंकी सेवामें एक विशेषता यह इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि सबके सब इनके अनुयायी हो है कि दोनोंकी सेवाएँ भिन्न-भिक्ष कोटिकी होकर भी दोनोंने गये। कहा जाता है कि कुन्दकुन्दको भी गिरनारपर श्वेतांबरों स्व-पर-उन्नतिका यथार्थ मार्ग बतलाकर लोक-सेवा को है। से विवाद करके तत्त्वसिद्धि करनी पड़ी थी । परन्तु समन्त- और दोनोंके ही द्वारा वीर-शासनकी प्रभावना हुई है। भद्र तो स्वयं अपने दक्षिणसे-उत्तर देश तकके (कांची- क्योंकि 'न धर्मो धार्मिकैर्विना' उन्हींका वचन है। अज्ञान कन्हाड) विहारका परिचय पद्यमें देते हैं । वादार्थी होकर अंधकार तो 'रवि शशि न हरे सो तम हराय' इस उक्तिके स्वयं भेरी बजाकर प्रतिवादियोंको बाहान देना और अन्त में अनुसार इतना दूर किया है कि आज तक भी वह जैन स्याद्वादको गर्जना करना इनका मुख्य काम था । इन्होंने दर्शनके समीप फटकने नहीं पाता | जिन्हें इनकी सेवाको दिग्विजय द्वारा वीर-शासनको प्रतिष्ठा कायम करके अनेकांत लाभ नहीं मिला, वे सच्चे मार्ग-राजमार्ग-से कोसों दूर भाग और अहिंसाकी सेवा की है। सारे बिखरे हुए जैन समाजको रहे हैं। और जिन्होंने अंत:करण को धोकर और निर्मल कर