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समयसारकी १५वों गाथा और श्रीकानजो स्वामो
(गत किरण = से भागे) क्या शम भाव जैनधर्म नहीं?
श्वरा विद्.' इस वाक्यक द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, श्री कानजी स्वामीने अपने प्रवचन लेबमें प्राचार्य
और सम्यकचारित्रको वह समीचीन धर्म बतला कर निय कुन्दकुन्द के भावप्राभृतको गाथाको उद्धन करके यह बत
धमके ईश्वर तोकादिकने निर्दिष्ट किया है उस धर्मका नानेकी चेष्टा की है कि जिनशासन में पूजादिक तया
व्याख्या करते हुए सम्यस्त्रके वर्णनमे 'वैयावृष्य' वतांक अनुष्ठानको 'धर्म' नहीं कहा है, किन्तु 'पुण्य' कहा
को शिकावनां में अन्तभून धर्मका एक अंग बताया है, है, धर्म दूसर। चाज है और वह मोह-शोभस रहित भास्मा
जिसमें दान तथा संमियोकी अन्य सबवा और देवका परिणाम है:
पूजा ये तीनों शामिल है; जैसा कि उक प्रम्बक निम्न पूयादिसु वयसहियं पुरणं हि जिएहिं मासणे भणियं। वाक्यास प्रकट है:माहवाबोहविहीणा परिणामो अप्पणा धम्मो ॥५३॥ दान वैयावृत्त्य धर्माय तपोधनाय गुणनिधय ।
इस गाथामे पूजा-दान-प्रतादिक धर्मरूप हानका अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥११॥ कोई निषेध नहीं, 'पुवर्ण पदके द्वारा उन्हें पुण्य प्रसाधक व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । धर्मके रूप में उल्लेखित किया गया है। धर्म दो प्रकारका वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्याऽपि संयमिनाम ॥११॥ होता है-एक वह जोशुभ भावोके द्वारा पुण्यका प्रमाधक देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदु.खनिहरणम . है और दूसरा वह को शुद्ध भावोंके द्वारा अच्छे या बुरे कामदहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतो नित्यम॥११३॥ किसी भी प्रकारके कमालवका कारण नहीं होता। प्रस्तुत गाथामें दोनों प्रकारके धर्मोंका उब्लेम्व है। यदि श्री कुन्द
साथ ही यह भी बतलाया है कि धर्म निःश्रेयस तथा कुन्दाचार्यकी दृष्टि में पूजा दान व्रतादिक धर्म कार्य न होते
प्रभ्युदय दानां प्रकार के फलोंको फलना है. जिसमे अभ्युतो वे स्यणमारकी निम्न गाथामें दान तथा पूजाको श्राप
दय पुण्य प्रसाधक अथवा पुण्यरूप धर्मका फल होता है कोंका मुख्य धर्म और ध्यान तथा अध्ययनको मुनियोका
और वह पूजा धन तथा पाशाक ऐश्वयंको पन परिजन मुख्य धर्म न बनात
भोर काम भागोकी समृद्धि एवं अतिशयको लिए रहता है दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मो ण सावगी तेण विणा
जैसा कि तस्वरूप-निर्देशक निम्न पथम जाना जाता है:माणमयणं मुक्खं जइधम्मो तं विणा गोवि ॥ ११ ॥ पूजा
पूजार्थाश्वर्यैबल-परिजन-काम-भोगभूयिष्ठै.। और न चारित्रप्राभृतको निम्नगाथामें हिसादिवनोंक अतिशयितभुवनमदतमभ्युदय फलनि सद्धर्मः ॥२४॥ अनुष्ठानरूप संयमाचरणको श्रावक धर्म तथा मुनिधर्मका स्वामी समन्तभद्र इन मवाश्याम स्पष्ट कि नाम ही देते
पूजा तथा दानादिक धर्मके अंग है वे मात्र अभ्युदय एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं। अथवा पुण्य फलको फलने की बजाय धर्मको कोटिये नहीं सुद्धं संजमचरणं जहधम्म णिकलं वोच्छे॥२०॥ निकल जाते । धर्म म्युदयरूप पुण्य फलको मा फलता
उन्होंने ती चारित्रमाभृतके अम्तमें सम्यक्त्व-साहित है, इसीसे लोकमें भी पुण्यकार्यको धर्मकार्य और धर्मको इन दोनों धर्मोंका फल भपुनर्भव (मुक्त-सिन) होना पुण्य कहा जाता है। जिस पुण्यके विषय में 'पुष्पप्रमादालिखा है। तब वे दान-पूजा-प्रतादिकको धर्मकी कोटिसे किनि भवति' (पुण्यके प्रसाद क्या कुछ नहीं दावा मनग कैसे रख सकते हैं? यह सहज ही समझा जा जैसी लोकोक्तियाँ प्रसिद्ध है, वह यो ही धर्मको कोरिस सकता है।
मिकासकर उपेषा किये जाने की वस्तु नहीं है। तान नोकस्वामी समम्तमने अपने समीचीन धर्मशास्त्र (रस्म के अधिपति धर्म-शीर्थकरके पदकी प्राप्ति भी उस सर्वात करावकाचार) में सदृदृष्टि-झान-वृत्तानि धर्म धर्मे- विशायि पुययका ही फल है-पुण्य भिम विपी दूपर