Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ किरण १] पुरातन जेन साधुओंका आदर्श - २ व्रतशुद्धि-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और हैं। जहाँ सिह विचरण करते हैं, ऐसे पर्वतोंके उपरितन, परिग्रह, इन पाँचों पापोंका मन, वचन काय और कृत, अधस्तन, मध्यवर्ती भागमें, या कन्दरामोंमें वे नर-सिंह कारित, अनुमोदनामे यावज्जीवन के लिए त्याग कर पांच साधु जिनवचनामृतका पान करते हुए प्रावास करते है। महावतोंका धारण करना, उन्हें प्राणान्तक परीपह और वे साधुजन धर्ममें अनुरक्त हो, घोर अन्धकारसे ज्याप्त, उपमर्गके प्राने पर भी मल्लिन नहीं होने देना व्रतशुद्धि श्वापद सेवित, गहन वनामे रात्रि व्यतीत करते हैं, तथा कहलाती है जैन साधु कर जंगली जानवरोंके द्वारा स्वाध्याय और ध्यान में लवलीन होकर रात भर सूत्राय ग्वाये जाने पर भी मनमे उनके प्रति दुर्भाव नहीं लाते, और प्रात्म चिन्तन करते हुए निद्राके वशंगत नहीं होते प्रत्युत्त यह चिन्तवन करते है कि यह बेचारा उपद्रव है। वे वीर मुनिजन, वीरासन, पद्मामन. उत्कुटामन करने वाला मेरे उदयमे पाने वाले दुषमों के निमित्तसे आदि विविध योगासनोंका पाश्रय लेकर प्रात्मस्वरूपका पापका संचय कर रहा है, अहो, मैं कितना पापी हूँ। चिन्तवन करते हुए गिरि-गुफाओंमें रह कर रात्रिको व्यतीत इस प्रकार स्वकर्म-विपाकका विचार कर उस पर क्षमाभाव करते है। उपधि-भारसे विमुक्त, काय ममत्वसे रहित, धारण हरते हैं। प्राण जानेका अवसर प्राने पर भी धीर वीर मुनियोको यही वातशुद्धि है और एमी वर्मातलेशमात्र झूठ नहीं बोलते, विना दी हुई मिट्टो तकसे भी कामे रह कर ही साधुजन मारम-सिद्धिकी साधना करते हाय नहीं धोते, अखंड ब्रह्मचर्य धारण करते हैं और मेरा है। (गा. १६.३) ब्रह्मचर्य स्वप्न में भी खंडित न हो जाय, एतदर्थ गरिष्ठ ४ विहारशुद्धि-दय के अवतार माधुजन प्राणिमानभाजन, और घृतादि रसोको परिहार कर एक वार नीरस की रक्षा करते हुए इस भूतल पर विहार करते हैं वे रूखा मूखा श्राहार करते हैं। अति भयंकर शीत-उष्णकी ज्ञान के प्रकाश जीव और अजीवके विभागको भलीबाधा होने पर भी मदा नग्न रहते हैं, वालाग्र मात्र भी भौति जान करके मदा सावधान होकर मयं यावद्य योगका वस्त्रादिको धारण नहीं करते । वे मदा अपरिग्रहवे. परिहार करते है, पापम्मे दूर रहते हैं, किसी भी त्रम मुतिमान स्वरूप होकर निज शरीर में भी रंचमात्र ममन्व जीवको बाधा नहीं पहुंचाते, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु नहीं रखने और व-स्वभाव सदा सन्तुष्ट रहते हैं इम और वनस्पतिकी न स्वयं विराधना करते है, न अन्य तरह सर्व प्रकारसं महावनाका निदोष पालन करना कराते है और न करते हुएको अनुमांदना करते हैं। वे वतशुद्धि है । ( गा० १३-10) सर्व प्रकारके अस्त्र-शस्त्रादिकम रहिन होते हैं, सर्व ३ वनिगुद्धि-वति नाम निवासका है। विहार प्राणियों पर समभाव रखते हैं और धारमार्थका चिन्तवन करते हुए साधुको जहाँ सूर्य अस्त होता हा दृष्टिगोचर करते हुए मिहके ममान निर्भय होकर विचरते हैं। होता है, वहीं किसी एकान्त, शुद्ध प्रामक स्थान पर जहाँ कपायाका उपशमन या उपण करने वाले वे साधुजन सदा पशु, स्त्री, नमकादिकी बाधन हो, ठहर जाते हैं। उन्नत मन, उपक्षाशील, काम-भागांम विरक वैराग्य भाव और सूर्योदयके पश्चात् विहार कर जाते हैं। ग्राममे नानाम परिपूर्ण और स्नत्रय धर्मके पागधनमें उद्यत एक रात्रि और नगर पाँच रात्रि तक रहते हैं। वे सदा रहकर इस भव-वृक्षक मूलका उच्छेदन करते रहते हैं। एकान्त, शान्त स्थानमें निवास करते हैं और प्रामक मार्ग वे सदा अपनी विचक्षण बुद्धिर्म कपायांका दमन और पर ही विहार करते है। साधुजनोंक निवास-योग्य वमनि- इन्द्रियांका निग्रह करते हुए अगर्भवतिका अन्वेषण काओंका विवेचन करते हुए मुजाचार-कार कहते है कि करते रहते हैं जिससे कि पुनः संसारमं जन्म न ग्रहगा पर्वतांकी कन्दराएं. श्मशान भूमियाँ और शुन्यागार ही करना पड़े। हम प्रकार विचरनको शुद्धिको विहारशद्धि श्रेष्ठ वसतिकार है और इनमें ही वीर पुरुष निवास करते करते हैं। (गा० ३-४३) है। जो स्थान जंगली जानवरोंकी गर्जनासे गुंजायमान ५भिक्षाशुद्धि-भिक्षा अर्थात् भोजनकी शुद्धिको है, जहाँ व्याघ्र, चीता भालू आदिके शब्द सुनाई दे रहे मिक्षाशुद्धि कहते हैं। साधुजन मन, वचन, काय और कृन, हैं ऐसी गिरि-गुफाओंमें धीर वीर माधु जन निवास करते कारित, अनुमोदनास शुद्ध, शंकादि दश दाबसे रहित,

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386