Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 363
________________ १२] अनेकान्त । वर्ष १३ नख-राम आदि चौदह मलासे वर्जित और दूसरेक द्वारा उत्पन्न होने पर भी, आंखांकी पीड़ा, शिरको वेदना, उदरभक्तिपूर्वक दिये हुए माहारको पर-घर में ही पाणिपात्रमें का शूल और वात-पितादिक विकार जनित रोगोंके उत्पन्न रखकर भोजन करते हैं। वे अपने उद्देश्यले बनाये गये होने पर भी स्वयं औषधि सेवन नहीं करते और मनमें अपने लिए खरीदे गये, अज्ञात, कित, प्रतिषिद्ध और विकार तक नहीं उत्पन्न होने देते हैं। वे शारीरिक मान आगम-विरुद्ध प्राहारको ग्रहण नहीं करते। वे मौनपूर्वक मिक मभी प्राधि-व्याधियाँको परम प्रौपधिरूप जिनवाणीविहार करते हुए. धनी या निर्धनका ख्याल न करके जहाँ का सदा अभ्यास करते रहते हैं। वे जन्म, जरा, मरणरूप पर निर्दोष भोजन उपलब्ध हो जाता है, वहीं उसे ग्रहण रोगाके निवारण करने के लिये जिनवचनकी ही परम कर लेते हैं। वे शीतल या उष्ण, सरस या नीरस, लोने. अमृत मानते हैं व सर्व प्रकारके प्रात्त और रौद्ध्यान या अलोने, रूखे या चिकने श्रादिका कुछ भी विचार न का परित्याग करके धर्म और शुक्ल ध्यानका चिन्तवन करके श्रावकके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनको सम- करते हैं. सर्व विकार भावों का परित्याग करके शुद्ध भावों भावके साथ ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार गाड़ोको ठीक की प्राप्ति और पालन करने में प्रयत्नशील रहते हैं । शरीरको प्रकारसे चलने के लिए पहिया में घोंघनका लगाना जरूरी सर्व प्रशुचियाका घर समझकर उससे उदासीन रहते हैं, होता है उसी प्रकार शरीर धर्मसाधनके योग्य बना रहे, उसमें भूल करके भी राग-भाव नहीं धारण करते हैं। एतदर्थ वे निदाप श्राहारको ग्रहण करते हैं । आहारके इस प्रकार सांसारिक पदार्थोंका परित्याग करके वीतरागतामिलने पर वे संतुष्ट नहीं होते और न उसके अलाभ म्वरूप शुद्धि को धारण करना उज्झनशुद्धि कहलाती है। असंतुष्ट होते हैं। न मुंहसे आहारकी याचना करते हैं (गा. ७०-८६) और न पाहार देने वाले की प्रशंमा ही करते हैं । व वाक्यशद्धि-चनकी शद्धिको वाक्यशुद्धि करते अमासुक, विवर्ण, जंतु-संसृष्ट, चालत, क्वचित, विरस हैं। माधु जन धर्म-विरोधी, दूसरों को पीदाकारी एवं अनर्थ और वास भोजनको नहीं ग्रहण करते हैं। इस प्रकार जनक वचन भूल करके भी नहीं बोलते हैं। सर्वप्रथम तो भोजनकी शुद्धि का साधुजन भले प्रकारमे पालन करते साधु मौनको ही धारण करते हैं। यदि धर्मापदशादिके निमित्तसे बोजना भी पड़े तो हित मित, प्रिय वचन ही ६ज्ञानशुद्धि-द्रग्य, क्षेत्र, काल, भावकी शुद्धि- बोलते हैं, अप्रिय और कटु सत्यको भी नहीं बोलते हैं। पूर्वक ज्ञानकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के तपांकी पाराधना म्त्रीकथा. अर्थ कथा, भोजनकथा राजकथा, चार कथा, देशकरते हैं, एकान्तम निवास करते है, गुरुको सुश्रषा करते कथा. युद्धकथा मल्लकथा प्रादि विकथानाको कभी नहीं हैं, माथियोंके साथ तत्वांका अनुमनन और चिन्तन करते कहते । वे इनका मन, वचन, कायम परित्याग करते हैं। है, सर्व प्रकारके गर्वसे दूर रहते हैं, जिनोक्त तत्वांके श्रवण, कन्दर्प कौत्कुच्य, मौखर्य-मय प्रलाप, हास्य, दर्प, गर्व ग्रहण और धारणमें तत्पर रहते हैं, अपनी साधनाके द्वारा और कलह उत्पादक वचन भूलकर भी नहीं कहते है। अष्टांग महानिमित्तांके, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोके जब भी कहेंगे, तो भागमोक, धर्म-सयुक्त हित, मित ही पारगामी होते हैं, पदानुमारी, बीजबुद्धि, मंभिन्नश्रीतत्व कहगे । इस प्रकार साधुजन वाक्यशुद्धिको निरन्तर भावना प्रादि ऋद्धियोंके धारक होकर परमपदका मार्गण करते रखते हुए उसका समुचित पालन करते हैं। (गा० ८७ १५) रहते हैं। ऐसे साधुजनोंके ज्ञानशुद्धि कही गई है। तपःशुद्धि-तपःसम्बन्धी शुद्धिको तपःशुद्धि कहते (गा० ६२ ६१) है। वे साधुगण लौकिक-मान प्रतिष्ठा आदिसे रहित होकर ७ उज्झनशुद्धि-उज्झन नाम त्याग या परिहारका निश्छलभावसे अपने कमाँकी निर्जराके लिए तपश्चरण है। साधुजन सर्वप्रथम स्त्री, पुत्रादि, कुटुम्बी जनोंके स्नेह का करते हैं. स्वाध्याय संयम और ध्यानमें सदा सावधान त्याग करते हैं, पुनः थन, परिग्रहादिकी ममताका त्याग रहते हैं। जब हेमन्त ऋतु प्राकाशसं हिम वर्षा हो रही करते हैं, शरीरसं माहका त्याग करते हैं, उसके संस्कारका हो, उस समय वे खुले मैदानों में खड़े होकर शीतपरीषह त्याग करते हैं, स्नान, दातुन, तेल मर्दन, अंजन, मंजन सहन करते हैं। जब ग्रीष्मऋतु में प्रचण्ड सूर्य अग्निवर्षा मादिका त्याग करते हैं। वे शरीरमें प्राण-हारिणी पीढाके करता है तब वे पर्वतोंकी शिखरांपर ध्यान लगाकर उपण

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