Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 364
________________ किरण १] पुरातन जैन साधुओं का आदर्श [१३ - परीपह सहन करते हैं। जब वर्षाऋतु में पानी मसलाधार सर्वाधिक प्रभाव डालती है, वह यह है कि साधुका जीवन बरसता है, तब वे वृक्षोंके तले खड़े होकर ध्यान लगाते कितना पवित्र और उच्च प्रादर्शयुक्त होता है कि वह हैं। इस प्रकार वे परम तपस्वी साधु तीनों नमी में घोर अपने आहार-विहारसे किसीको पीदा नहीं पहुँचाना परीषह और उपसर्गों को सहन करते हुए घोर तपश्चरगा चाहता, दुनियादारीसे सम्पर्क रखकर चिनकी शुद्धिको करते हैं। प्रबल शीतकाल में उनका मारा शरीर फट जाता बिगाड़ना नहीं चाहता और परिग्रह-भारका परित्यागकर है, अति उप्णकाल में सारा शरीर सूर्यको प्रबर किरणोंये निराकुल रहना चाहता है । वह साधु-चंपकी मर्यादा रम्बनेके मुजस जाता है, वर्षाऋतुम जब डांस-मच्छरोंके उपद्रव लिए सदा सावधान रहता है। ग्राम और नगरोंके कोलासारा शरीर विकल हा उठता है, तब वे धीर वीर परम हलपूर्ण वातावरणसे अति दूर होकर नर्जन वन वर्मातकानों शमभावसे उस वेदनाको सहन करते हुए सदा कर्म-क्षपणमें और गिरि-कन्दरामा में रहना स्वीकार करता है। यसतिउद्यत रहते हैं। कोई उन्हें दुर्वचन कहे, मारे, नानाप्रकारको शुद्धिका प्रकरण पढ़ते हुए पहसा ममाधितंत्रका यह श्लोक याद अा जाता है :यातनाएं दं, शस्त्र प्रहार कर, तो भी वे तमाके सागर ___ जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनमश्चित्तविभ्रमाः। प्रहार करने वालों पर जरा भी कुपित नहीं होते। सदा भवान्न तम्मात्मंसगं जनैोगी नतस्त्यजेत ॥७२॥ पांचा इन्द्रियांका दमन करते और कपायोंका निग्रह करने अर्थात्-मनुष्योंक सम्पर्कस वचनका प्रवृत्ति हाती है, हुए अपनी आवश्यक क्रियाओंका पालन करते रहते हैं। वचनकी प्रवृत्तिसं मनमें व्यग्रता उत्पन्न होनी है मनकी इस प्रकार परम विशुद्धि पूर्वक तपश्चरण करना तपःशुद्धि व्यप्रनाम नाना प्रकारक विकल्प उत्पन्न होते हैं और है । (गा० ६६ १०६) विकल्पोंमे कर्मास्रव होता है, इसलिए परम शान्तिके १० ध्यानशुद्धि-मनकी चंचलताको शंकना, उसे इच्छक मायोको चाहिए कि वे लौकिकजनोंके साथ विषय कपायों में प्रवृत्त नहीं होने दना ध्यानशुद्धि कहलानी संपर्गका परित्याग करें । है। जैसं मदोन्मत्त हाथ। अंकुशसे वश में हो जाता है. कहनेका प्राशय यह है कि जहां भी लौकिक जनों का उसी प्रकार साधुजन अपने मनरूपी मत्त हस्तीको ज्ञानरूप सम्पर्क होता है, वहाँ कुछ न कुछ वार्तालाप अवश्य होना अंकुशस वश में रखते हैं। अथवा विपयां में दौड़ते हुए है, उससे चित्त में चंचलता पैदा होती है और उपमे नाना चरल इन्द्रियरूप अश्वोंको व योगिजन गुप्तरूप लगामक प्रकारक संकल्प-विकल्प उत्पन होने है। अतः श्रान्मम्बद्वारा उन्हें अपने प्राचीन रखते हैं। राग, द्वेष, मोहको रूप मापन करने वाले माधुग्रीको निर्जन एकान्न, शान्त दुरकर, भात और रौद्रभावोंका परित्याग कर सदा धर्म- वमनिकााम ही निवास करना चाहिए, नगरीके कोलाहलध्यान में रत होकर शुक्ल ध्यानको प्राप्त करनका प्रयत्न पूर्ण वातावरण में नहीं। करते रहते है। जिस प्रकार प्रबल भौंधी और तूफान भाने इम अधिकारको पढ़ने हुए वीतराग माधुश्रीका पर भी सुमेरु अचल रहता है, उसी प्रकार वे साधजन मृर्तमान रूप पाठकके सम्मुम्ब श्र। उपस्थित होता है। प्रवल उपसर्गादिक पाने पर भी अपने ध्यानसे पवित्रता और विशुद्धिनाके भागार उन अनगार-माधाको मात्र चन-विचल नहीं होते। यही उनकी ध्यानशुद्धि नमस्कार है। ।(गा०१०-११) समयसाराधिकारइस प्रकार इन शुद्धियांका वर्णनकर मलाचार-कार मूलाचारका समयमाराधिकार तो सचमुच ममय कहते हैं कि उक्त शुद्धियाँको धारण करने वाले पानीको अर्थात् जैन शासनका मार ही है। 'समयसार' इम पदका भ्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, अनगार, वीतराग, भदन्त अर्थ करते हुए टीकाकार प्रा. वसुनन्दि लिम्वत है: और दाम्त आदि नामसि पुकारा जाता है, और एसे ही 'समयमार द्वादशा पूर्वाग्गां सारं परमतत्त्वं फराषिराज अपनी रस्नत्रयकी विशुद्धि के द्वारा सर्व कर्मोंका मूलगुणोनरगुग्णानां च दर्शनशानचारित्राणां शुद्धितय करके परम सिद्धिको प्राप्त करते हैं। विधानस्य च भिक्षाशुद्धश्च मारभूतं ।' इस अधिकारका विहगावलोकन करने पर एक बात अर्थात्-'यह समयमार अधिकार बारह अंग और जो पाठकके हृदय पर अंकित होती है और उस पर अपना चौदह पूर्वोका सार है, परम तत्व , तथा मूलगुण, उत्तर

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