Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 377
________________ अनेकान्त [ वर्ष १३ लालसा व्यक्तिको नहीं वैभवको देखती है। उसके स्यालोका रुदन स्मशानको और भा बीभत्स बनाने लगा। पंख इसने कठोर होते हैं कि प्रायमानसे देवताको हवायें सू सू करके बह रही थी और उनके वेग भी गिरना पड़े तो उन्हें भी धकेलते हैं। लालमाने ही चितानाकी लपटें धाय धाय करके और उग्र होती जा रही मानवके रोषको जगाया । रोषने उसके प्रकारका थीं। मुनिराज अनन्तमें-शून्यमें हाथ फैलाते हुए बोलेबलवान किया सभी विवेक नए होता है, बुद्धि साथ नहीं 'धरती और श्रास्मानक देवता ! श्रात्माकी करुण देती और मानव गिर जाता है विनाशके पंकम, महाके पुकार सुनां । आज एक विरागीका धर्म संकट में है, जिसके लिए। पाम न दुनियाकी ममता है और न उसका परिग्रह । उसके विष्णुशर्माके हृदयमें रोष भर उठा था। वह तीखी पास है केवल व्रत, उपवास और तप, विश्वास, ज्ञान मुस्कान आकृति पर बाते हुए बोला-'सांमशर्मा! अच्छा और चारित्र । इनमेंसे जसका भी फज चाही ले ला. पर स्वांग बनाया है ऋण-मुक्तिका? अपने इस नग्न रूपका मुझे लालसााका खिलाना हानस । मुझे लालसाओका खिलौना होनेसे बचाओ ! संसारमे छल दूसरोके साथ करना । जात्रा मेरी धनराशि । ऋण- लोटनसे मुझे बचाया !! मंमारकी लालमाय मुझे पथमुक्केि बाद ही जा सकोगे यहाँ से। भ्रष्ट करनेका प्रयन्न कर रही है। देखा, मैं बहुत देकर भक्ति-गद्गद् जन-ममुदाय स्तब्ध होकर रह गया। 'कुछ लेना चाहता हूँ। मच्चे रत्न देकर मैं कच्चे मोती सहस्रोकी प्राकृतिपर गेप उभरने लगा, विष्णुशर्माक लेना चाहता है. जो अज्ञानी मारके लिए सर्वम्य हैं, कृश्य पर । बोले-'मनिराज क्या विष्णुशर्माका कहना 'प्राण है। ठीक है ? या श्रमणके उपहासका चक्र है यह देव " रात्रिको निम्तब्धतामें मुनिका करुण क्रन्दन निगमुनिराज गम्भार होते हुए बोले-'उमका कहना दिगन्नामें व्याप्त होने लगा विश्व देवता विरल हो उठे, ठीक है । गृहस्थ मोमशान उससं ऋण लिया था, पर कुछ क्षणों में ही मुनिराजकी पथरायी हुई अग्बिोन देवा, प्राज वह विरागी है । न उसके पास धन है और न धन- ग्राकाश प्रभामय होना जा रहा है। विचित्र वर्णोको रन्नका मोह । पिताके बाद गृहका उत्तरदायित्व मन्तान पर प्टिम मा मातृम होने लगा मानो राजपथ पर जाते होता है । हानि-लाभ, श्रादान-प्रदान मेरे पुत्रके हाथमे ई हुए किसी सम्राट पर कुलवधु पुष्प-वृष्टि कर रही हो। और उसीका कार्य है संसारकी उलझनें सुलझाना। रत्नराशिके बीच में मुनिराज इतने दीप्तिमय होते जा रहे विष्णुशर्मा! ऋण मुक्ति पुनक हाथ में है और उमीसं . जैम नक्षत्रांक बीच में चन्द्रमा । चन्द्रदेव मुनिराजक • तुम्ह सब मिजंगा। श्रागे उदास होकर पीले पड़ गये । टिमटिमाते हुए तार विष्णुशमा बाल-"श्री मुनि ! में तुम्हार पुत्रका शीघ्र ही आकाशके समुद्रमे अपने आपको टुयाने लगे। नहीं जानता । मैं जानता हूँ केवल तुम्ई, जिसे मैन विपुल चकोरी हताश होकर किमी वृक्षकी शाखा पर बेठ कर धनराशि दी थी। तुम कहते हो कि तुम्हार पास धन रह गई और कोकिलका मधुर स्वर श्मशानको नीरवता नहीं, पर धर्म तो है उसीको बच कर चुका दो मरी चीरता हुया प्रभातियाँ गाने लगा। मनिराज गम्भीर थे । धनराशि | गृहस्थ और विरागीका भेद करनको मुझे कोई उनकी प्राकृति पर तेज-पुञ्ज विखर रहा था। आवश्यकता नहीं, मुझे चाहिए हे मरा धन, जा तुम्ह प्रभात होते ही विष्णु रार्मा और उनके माथी स्मशान दिया था, विश्वास करके। मेश्रा पहुंचे । पर मनिराजको देखते ही उनकी प्राकृति उपस्थित जन हतप्रभ हो चलं । वे प्रश्नभरी दृष्टिस पर आश्चर्य मूत्तिमान् होने लगा। इस समय विष्णुमुनिराजकी ओर देखन लगे। शर्माकी स्थिति एक स्वप्नदृष्टा जैसी थी। मुनिराज बोले- "विष्णुशर्मा ! मुझे एक रात्रिका उसी समय वनदेवताने प्रकट होते हुए कहाअवकाश दो । प्रभात होते ही तुम्हें मिल जायगो तुम्हारी विष्णुशर्मा ! मुनिराजके संकटको देख कर मैंने यह रत्नधनराशि राशि चारों ओर बिखेर दी है। जो! जितना ले जा सको मध्य-रात्रिका समय है । मुनिराज सोमशर्मा नगरके ले जाओ यहाँ से । विरागीको विकल बना कर तुमन भयानक स्मशानमें ध्यानस्थ हो गये । चारों ओरसे अच्छा नहीं किया।

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