Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 379
________________ २८1 अनेकान्त किरण १ पश्चात वे सभा-भवनमें पधारे। सर्व प्रथम आचार्य जुगल- गाथामें मिला । जिम तीर्थ-प्रवर्तन जैसे महान् पर्वको लोग किशोर जी ने मंगलाचरण किया। इसके पश्चात श्रीमती भूले हुये थे उसका उम गाथामें स्पष्ट उल्लेग्व है। इस मखमली देवीने साहूजी को तिलक किया और उनके पति गाथा में बताया गया है कि वर्ष के प्रथम माम, प्रथम पक्ष ग. ब. दयाचन्द्रजी जैनने माहूजी को, और रा० मा. और प्रथम दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको अभिर्भाजन नक्षत्रमें उल्फतगयजी ने श्री मुख्तार सा० को हार पहराये । प्रसिद्ध सूर्योदय के समय वीर जिनक धर्म-तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। संगीतज्ञ ताराचन्द्रजी प्रेमीने सुमधुर स्वरमें स्वागत गान युगका प्रारम्भ भी इसी तिथिस होता है। पांचों कल्याणक गाया (जो अन्यत्र प्रकाशित है ) तदनन्तर श्री पं० राजेन्द्र ता नीर्थकरांक व्यक्रिगत उत्कर्षक द्योतक हैं, किन्नु संसारके कुमारजी ने अपने भाषण में माहूजी का परिचय देते हुए बन- प्राणियों के कल्याणका सम्बन्ध भगवानकी वाणीसे है, जिसका लाया कि माह मा० ने केवल जैनसमाज और भारतीय अवतार इस पुण्य निधिको हुआ है। इस लिए तीर्थप्रवर्नन व्यापारियों में ही प्रमुग्यता प्राप्त की, बल्कि उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय होने के नाते श्राजक दिन का बड़ा महत्व है। सबसे पहले उद्योग पतियों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त है। जन समाज की तो प्रायः वह पर्व वीरसेवा मन्दिग्में मनाया गया, तदनन्तर बराबर पभी संस्थाओं पर आपका वरद हाथ रहा है। ऐसे उदार, कार्य- विद्वन्मान्य होता हुआ अब मारे भारत में मनाया जाता है। कुशल, दानवीर व्यक्रि-द्वारा नवीन-भवनका शिलान्यास होना अपना भाषण जारी रखते हुए आपने यह भी बतलाया कि नि.सन्देह गौरव की वस्नु है । साथ ही आपने यह भी बत- अनकांत और अहिया य दो वीरशासनक प्रधान आधारलाया कि जैन संस्कृति पर जब कोई संकट या अन्य कोई म्तम्भ हैं। संसार की अशान्तिक दो मूल कारण हैं-विचारऐतिहासिक उलझन पाई, तब उप श्री मुख्तार मा० ने बड़े संघर्ष और प्राचार-संघर्ष । विचार-संघर्ष को अनेकान्त और ही अच्छे ढंगसे सुलझानेका यत्न किया है। वारसवा- प्राचार-संघर्षको ओहमा मिटाती है। इन दोनों सिद्वान् मंदिर द्वारा की गई मांस्कृतिक सेवाएं बड़ी ही महत्व पूर्ण के समुचित प्रचारसं विश्व में मची शान्ति स्थापित हो सकती है। अन्तमें पं० जी ने अपनी भावना प्रकट करते हुए कहा है। विश्व-शान्तिक लिए इन दोनों प्रचार की अत्यन्त कि श्री मुग्ख्तार मा० के द्वारा लगाया हुया यह पौधा माह अावश्यकता है-विश्वमें ग्राज इनकी मांग भी है। यह जी जैम उदारमना पुरुषों द्वारा मींचा जाकर भागडारकर हमारी त्रुटि और कमजोरी है जो हम उसका प्रचार नहीं रिमर्च इंस्टिट्य ट जैसी संस्थाका रूप धारण करे तो यह कर रहे हैं। अति उत्तम होगा। इसके पश्चात् बा. छोटेलाल जी कलकत्ता, अध्यक्षपं० हीरालाल जी शास्त्रीने बोर.शासन की महत्ता पर वीरसेवा मन्दिरने अपने भाषणमें बतलाया कि पूज्य मुख्तार अच्छा प्रकाश डाला। पं० धर्मदेवजी जैतलीने वेदांत, बौद्धादि. मा. जैसे महान माहिन्य-पम्वी और मन्यासी जैसे पवित्र मतोंका उल्लेख करते हुए कहा-घेदान्ती लोग चित्रपटक जीवन व्यतीत करनेवाले महानुभाव-द्वारा मस्थापित मन्दिरपट को तो मानते हैं, पर उसके चित्रोंको सत नहीं मानते। के शिल्यान्यामके लिए जिम धर्मनिष्ठ एवं गुणविशिष्ट बौद्ध लोग चित्रों को तो मानते हैं, पर पटका अस्तित्व नहीं महानुभावकी आवश्यकता थी उसकी पूर्ति हम माहूजी में मानते । पर अनेकान्तमय जैनधर्म दोनों को सत्य मानता देख रहे हैं । आपके दादा साहु सलेम्वचन्द्र जी बड़े धर्मात्मा है। उसके मत से पट भी मत् है और चित्र भी मत है। और उदार थे। श्रापको यह धर्मनिष्ठा और उदारता पैतृक इस प्रकार जैनधर्मका स्यावाद सिद्धान्त परस्पर-विरोधी सम्पत्तिके रूपमें प्राप्त है । पापक चरित्रकी उच्चता एक तत्त्वांका समन्वय कर गंगा-जमुनाके संगमका पवित्ररूप धारण विशेष बात है। जिपकी आज धनिकवर्गमें बहुत ही कमी करन के कारण जगत्पूज्य और अनुपम है । संसारके समस्त देबी जाती है। देश-विदेशों में घूमने पर भी आपका आहारधर्मोमें जैन धर्म सबसे प्राचीन है । इसकी बराबरी काई विहार हम लोगोंके लिए प्रादर्श रहा है। सभी तरहक दुसरा धर्म नहीं कर सकता। लोगोंस सम्पर्क रखते हुए भी आप सिगरेट तक नहीं पीते । प्राच्य विद्या महार्णव प्राचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारने धनाड्य युवक होते हुए भी आपका शील प्रशंसनीय है। अपने भाषणों में कहा कि बीर शापनक अवतारका सबसे पर्वके दिनों में आप सम्पूर्ण परिवार के साथ बलगछियाके पुराना उसलेग्व मुझे धवला टोकामें उद्धन एक प्राचीन जिन मन्दिरमें बड़ी भकिस भगवत्पूजन किया करते है।

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