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किरण १ ]
पुरातन जैन माधुओंका आदर्श
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इससे धागे मूलाचार कार कहते हैं कि यदि तुम अभ्यंग, संस्कारादिको छोड़कर उससे रागभावके दूर संसार-सागरसे पार होना चाहते हो, तो सर्व नोक-म्यवहार करनेको व्युत्सृष्टशरीरता कहते हैं। जीवोंकी रक्षार्थ को छोड़ो; प्रारंभ, परिग्रह और कषायोंका परित्याग करो; कोमल प्रतिलेखनको रखना चौथा श्रमण-चिन्ह है । एकस्व की भाधना भाया और एकाग्र चित्त होकर (गा. १७)
आत्म ध्यानको करो। संसार-सागरको पार करनकालय प्रतिजेवन कैसा हो. इसका विवेचन करते हुए कहा चारित्र नौका है. ज्ञान खेवटिया है चोर ध्यान पवन है। गय है कि जो रज-ल को ग्रहण न करे, प्रस्वेद-पसीनाइन तीनोंके समापोगस हा भव्य जीव भव-सागरके पार को ग्रहण न करे. जिसमें मृदुता हो, सुकुमानता ही अरि उतरते हैं। (गा. ५-७)
लघुना हो, ऐसे पांच गुणांस युक्त मयूरपिच्छका प्रतिलेखन ___ इसी बातको प्राचार्य प्रकारान्तरम कहते हैं कि ज्ञान साधुओंके ग्रहण करने योग्य है । मयूर पच्छ इतने कोमल मार्ग-दर्शक है, तप शोधक और संयम रक्षक है । इन होते हैं कि उन्हें शरोरके सबसे अधिक सुकुमार तीनांके ममायोगसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। यथा- अङ्ग - पांचोंक ऊपर भी प्रमानन कर देने पर उनमें णाणं पयामओ तो सोधओ संजमा य गुत्तियरो। कोई पीड़ा नहीं होती। अतः इसके द्वारा भूमिके तिरह पि संजोगे होदि हु जिणमासणे गावखो ।।। प्रमाजन करने पर आंखांसे नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म ___ सम्यग्दर्शनका माहात्म्य प्रकट करते हए मुलाचार-कार
जीव तक की भी विराधना नहीं होती। धूलि और कहते हैं कि सम्यक्त्वस तत्त्वाक ज्ञानकी उपलब्धि होती
पमानाकं न लगानेसे उसमें सम्पूच्छन जीवों की उत्पत्ति
नहीं होता। बाकांक तिलखनमें व्रमजीव उत्पन्न हो जाते है, तत्त्वज्ञानमे सर्व पदार्थों का यथार्थ बोध प्राप्त होता है और यथार्थ बोधस मनुष्य श्रेय-अधेयका-अपने कल्याण
है, अन्य वस्तुओंके प्रतिलेखन कर्कश होते हैं, जिससे कि
जीवघातकी शंका बनी रहती है, अतएव उपयुक्त पंचगुण और भकल्याणको जानता है । भ्रय-प्रश्रयका ज्ञाता दुःशीन या प्रकर्तव्य को छोड़ कर शीलवान बनता है और
विशिष्ट मयूर-पिच्छाका प्रतिलेखन ही साधुओंको महण
करने के योग्य है । (गा० १६-२३) फिर उससे अभ्युदय और निःश्रयमको प्राप्त करता है। इसलिए पर्व प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करना चाहिए। अधःकर्म-भोजीके दोप
(गा० १२ १३) जीबाकी विराधनासे उत्पन्न होने वाले याहारको अध:आगे कहा गया है कि अच्छी तरह पठित और कर्म दृषित माना जाता है। जो माधु निरन्तर मौन रखता सुगुणित भी सर्व श्र तज्ञान चारित्रमे भ्रष्ट श्रमणको हो, प्रातापनादि योग और वीरासन आदिको करता सुगतिमें नहीं ले जा सकता है यदि कोई द.पक हाथमें हो. वनमें रहना हो, परन्तु यदि वह अधःकर्म - दूषित लेकर कूप में गिरता है तो उसके हाथ में दीपक लेनेसं क्या भोजन ग्रहण करता है तो उसके उपयुक्त सर्व योग निरलाभ है ? इसी प्रकार यदि कोई मर्व शास्त्रीको पद र्थक कहे गये हैं। (गा. ३१.३२) जो माधु गुरुके समीप करके भी कुमार्ग पर चलता है तो उसके शास्त्र शिक्षासे सायं-प्रातः पालोचना और प्रतिक्रमण करके भी अधः
कर्म-परिणत पाहारको ग्रहगा करता है, उस संसारका क्या लाभ है (गा० १४.१५)
बढ़ाने वाला कहा गया है। अधःकर्म-परिणत माधु सदा श्रमण-लिंग
कर्म-बन्ध करने वाला माना गया है। (गा० १६.४३) साधुका लिग या बेष कैसा होता है, इस प्रश्नका इसलिए प्रति दिन निरवद्य-निर्दोष अर श्राहारका ग्रहण उत्तर देते हुए कहा गया है कि प्रचेजकता, केशलुचिता, करना उत्तम है, परन्तु वेला, तेला प्रादि अनेक उपयामों व्युत्सृष्ट-शरीरता और प्रतिलेखन रखना, यह चार प्रकारका को करते हुए अधःकर्म-परिणत आहारको ग्रहण करना लिंगकल्प होता है। किसी भी प्रकारका वस्त्रादि परिग्रह अच्छा नहीं है (गा. ४७) अतः धर्न-साधनके योग्य भकिनहीं रखना अचेलकता है। शिर और दादीके बालोंका पूर्वक दिया गया, सर्व मल-दोषांसे रहित विशुद्ध-प्रामुक अपने हायसे उखाड़ना केश-लुचिता है। शरीरके स्नान, माहार ही साधुको ग्रहण करना चाहिए । (गा० १२५२)