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पुरातन जैन साधुनोंका आदर्श
(श्री.पं.हीरालाल जन सिद्धान्त शास्त्री) संसारके संतोंमें भारतीय संतोंका सदाम उच्च स्थान मुख्य सभी विषयोंका यथास्थान वर्णन किया गया है और रहा है और भारतीय संतोंमें भी जैन माधु-सन्तोका इसका प्रत्येक अधिकार अपनी एक खास विशेषता को आदर्श सर्वोच्च रहा है। जिन्होंने जैन शाम्त्रीका थोडामा लिए हुए है, तथापि अनगारभावनाधिकार और समयभी अध्ययन किया है और जो सच्चे जैन साधुके साराधिकार तो मूलाचारके मयम अधिक महत्वपूर्ण अधिसम्पर्क में रहे हैं, वे यह बात भली भांति जानते है कि कार है। अन गार-भावनाधिकारको प्रन्यकारने स्वयं सर्व जैन साधुका श्राचार विचार कितमा पवित्र और महान् शास्त्रों का सारभूत अनगार-मूत्र कहा है । इसमे लिगहाना है। जैन साधुमें ही अहिंसामय परम धर्मका पूर्ण शुद्धि व्रत-शुद्धि, वसति शुन्द्रि, विहार-शुद्धि, शिक्षा-शुद्धि, दर्शन होता है। ये साधु अपने आचार-विचारमे किसी ज्ञान शुद्धि, उज्झन-शुद्धि, वाक्य शुद्धि, तपः - शुद्धि भीर प्राणीको कष्ट नहीं पहुंचाते, प्रत्युत प्राणिमात्रके उद्धारको ध्यान-शुद्धि, इन दश प्रकार की शुद्धियो का वर्णन किया प्रतिक्षण भावना करते रहते है। यही कारण है कि ऐसे गया है इस प्रकरणको पढ़ते हुए पाठकके हृदय पर यह सार्वजनीन - महितकर -माधुको जनाने अपने भाव अङ्किन हुए विना नहीं रहना कि जैन साधुनोंका अनादि मूल मंत्र स्थान दिया है और उन्ह "णमां लोए धरातल संसारी प्राणियोक धरातजस कितना ऊँचा है, सवसाहूणं" कह कर भक्ति पूर्वक नमस्कार किया है।
उनका श्राचार विचार वती श्रावकोंस भी कितना ऊँचा
होता है और उनका हृदय कितना शुद्ध और पवित्र होता श्रा० कुन्दकुन्दने ऐसे मार्व साधुश्री का मी स्वरूप
है। इस अधिकारमे वगिन उक्त दश प्रकारको शुट्टियाका दिया है वह इस प्रकार है :
पाठकोकी कुछ परिचय कराया जाता है, जो कि श्रादश णिव्याण-साधप जोग, सदा जुज्जति साधवो। साधु जीवनके लिए मर्वोपरि अपेक्षित है। समा सवेमु भूदेमु, तम्हा ते मध्यमाधवो ॥
१. लिंग-शुद्धि-निर्विकार, निम्रन्थ-रूप शरीरकी
शुद्धको लिग शुद्धि कहते हैं। साधु किसी भी प्रकारका (मूलाचार ५१२)
बाह्य परिग्रह नहीं रखते, शरीरका सस्कार नहीं करते, जो सदा काल निर्वाण-साधक रत्नत्रयकी माधना यहाँ तक कि स्नान और दातुनमे भी उपेक्षित रहते है। में तल्लीन रहते है और मर्व प्राणियों पर सम भाव रखते केशोंका अपने हाथोंमे लांच करके वे शरीरमे अपने निर्ममहै.-प्राणिमात्रके हित चिन्तक हैं-उन्हें सार्व साधु स्वभावको प्रकट करते है, घर-बार छोड़कर और कुटुम्बकहते हैं।
से दूर रह कर वे संमार और परिवारसे अपने नि:संगस्वश्रा० कुन्दकुन्दने अपने मलाचारमे साधुश्रांके भावका परिचय देते हैं। पांचों इन्द्रियोंके भोगोपभोगांसे प्राचार-विचारका बड़ा ही मर्मम्पर्शी वर्णन किया है राम भाव छोपकर वे अपनी वीतरागताका प्रमाण उपजिससे पता चलता है कि माधुश्रीका पूर्वकालमें कितना स्थिन करते हैं। वे इस मनुष्य जीवनको चपला उच्च प्रादर्श था और वे चारित्ररूप गिरिको शिखर पर (बिजली) के समान चंचल, भोगांको रोगांका घर और प्रारूढ़ होकर किस प्रकार प्रारम-साधना करते थे। ग्रन्ध- असार जानकर संसार, देश और भांगोंसे विरक होकर कारने साधुनोंकी प्रत्येक क्रियाका वर्णन वर्तमान कालका जिनोपदिष्ट वीतरागधर्मको धारण करते हैं। वे जन्मक्रियापद देकर किया है, जिससे ज्ञात होता है, कि ग्रन्ध- मरणके दुःखोसे उद्विग्न एवं संसार-वाससे भयभीत होकर बणित बातें केवल आदर्श ही श्रादर्श नहीं है, अपितु वे जिनोक तत्वोंका दृढ़ श्रद्धान करते हैं, कषायोंका परिहार उनके जीवन में रमी हुई सत्य घटनाए हैं और उस समय करते हैं और उत्साह पूर्वक शुद्ध प्रारमस्वरूपकी प्राप्तिके ग्रन्थ में वर्णित आवर्शके अनुरूप मूर्तिमान् साधुगण इस लिए सतत अग्रेसर रहते है । इस प्रकार यथाजातरूप भारतवर्ष में सर्वत्र विहार करते हुए दृष्टि-गोचर होते थे। (नग्न) मुद्राको धारण कर वीतरागताकी अाराधना करना
यद्यपि मूलाचारमें साधुओंके आगर-विषयक मुख्य- ही साधुम्रोको लिग शुद्धि है। (गा० ७.१२)