Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 360
________________ किरना१] जेन समाजका वह दानि पहुंचाएगा जो अब तक तीनों सम्यकद्वारा नहीं पहुंच सकी है, क्योंकि गोनांमें प्रायः कुछ कारी बनानेही संघर्ष - भीतरी साकीना जिन शामनका मूल रूप ही परिवर्तित हो जायग अनेकान्तके रूपनें न रह कर आध्यात्मिक नारया करनेके लिये वाध्य होगा । एकान्तका रूप समयमारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी - यदि यह आशंका ठीक हुई भारी चिता का विषय है और इसलिए कामती यामीको अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर की जरूरत है। जहां तक मैं समझता हूँ कानजी महाराजका ऐसा कोई अभिप्राय नही होगा ओठको जैन मायके जन्मका कारण हो । परन्तु उनकी प्रवचन-मालोका जी मध चल रहा हूँ और उनके अनुयायिांकी जो मिशनरी प्रवृतियां आरम्भ हो गई हैं उनमें भी आशका का होना श्रम्वाभाविक नहीं डं और न भविष्य म सम्प्रदायकी सृष्टिको हो चन्दा साविक कहा जा सकता है। अतः कानजी महाराजकी इच्छा यदि मुनीसा का नही हैं, तो उन्हें अपने प्रवचनोंके विषय में बहुत ही सतर्क एवं सावधान होने की जरूरत है—उन्हें केवल वचनां द्वारा अपनी पोजीशनको स्पष्ट करनकी ही जरूरत नहीं है बल्कि KH í ε व्यवहारादिक द्वारा ऐसा सुन प्रयत्न करने की भी जरूरत जिसमे उनके निमिनको पाकर पैसा चतुर्थ सम्प्रदाय भविष्य में वा न होने पाये, साथ ही बो-हृदय में जा उत्पन्न हुई दूर हो आप और जिन विज्ञानका विचार उनक विषय में कुछ दूसरा हो गई वह भी बदल जाय । ( मनु 'ज्ञानार्थी' कथा कहूँ । कम मैं पथष्ट पन्थि युग युगमे तुम स्वार्थक चेतन पैसे आग जला कर आग, आगमे कैसे शान्त म विप-फल बाय, नाथ असून फल कैसे आज ल ? अपना नीड भुला कर कैसे किसमे राह लहू ? क्या जानू जग कितना निष्ठुर कॅमे व्यथा महू ? मोहमद मुझे बचालो तुममे वही चहूँ !" श्राशा है अपने एक प्रवचनक कुछ अंशांपर सद्माबनाको लकर लिखे गये ६ श्राज्ञानात्मक लेख पर कानजी महाराज मविशेषरूपय ध्यान की कृपा करेंगे और उनका मरफन उनके स्पष्टीकरणात्मक वक्तव्य एवं नीमेशन ि गांधर हामः । वीरवान्दिर, दिली श्राप शुक्ला३ ५०२०१ जुगलकिशोर प्रस्तुत प्रवचन श्रीर भी बहुत मी बातें आपत्तिक याम्य हैं जिन्हें इस समय छादा गया -नमृनक तौर पर कुछ बाताका हो यहां दिग्दर्शन कराया गया हैअम्रत होने पर फिर किसी समय उनपर विचार प्रस्तुन किया जा सकेगा। मुख्तार - नाथ अब नेग शरण गहूँ । माहित्यरत्न ) अनि गभीर है मोह - जलधि में कैसे इसे न तृष्णा तृपा महाराजन कैसे पा हम यह संसार मान-तरणा से कैसे पार क. १ में पंछी मन्याला फँसे नीट गई? जगके जन सब ने अपना क भटक भटक कर जन्म जन्ममेतरा गई? नाथ! अब तेरा शरण गई

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