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किरण १]
'पृथक
दसरण - शास्त्रदेस सिस्सग्गहणं च पोसणं तेमिं । चरिया हि सरागाणं निशिदपूजोबदेसो य ॥ ४८ ॥ अवकुदि जो विणिकचं चादुव्वरणस्स समरणसं चस्म कार्यावराधरहि सो वि सरागप्पधारणो सो ॥ ४६ ॥ अदि कुर्यादि कायम्वदं वत्थमुज्जदो मम। हर्बाद, हर्बाद पगारी धम्मो सो साववाण से ॥५०॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य के इन वचनोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म या जिनशासनले शुभ भ वोको अलग नहीं किया जा सकता और नगुनियों तथा भावको मरागपारियको ही उससे किया जा सकता है। ये सब उसके अंग हैं, अगों होन अगी अधूरा या लंडूरा होता है. तब कानजी स्वामीका उक कथन निशामन के दृष्टिकोण कितना हित एवं विरुद्ध बताने की जरूरत नहीं रहती । खेद हूं उन्होंने पूजा-दान-चतादिकके शुभ भावोको धर्म मानने तथा प्रतिपादन करने वालोंको " खौकिकजन" तथा "अन्यमती" तो कह डाला ! परन्तु यह बतलाने की कृपा नहीं की कि उनके रस कहनेका क्या श्रीगर है किसने कहां पर पैसा मानने तथा प्रतिपादन करने वालोंको 'किक जन" आदिके रूपमें उ किया है? जहां तक मुझे मालूम है ऐसा कहीं भी उच नहीं है ने अपने नामें जीकिक जन' का जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है गांधी बट्टदि जदि पहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगोत्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि । ३-६६
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समयसार की १५वीं गाथा और श्री कानजी स्वामी
इसमें आचार्य जयसेनकी टीकानुम र, यह बतलाया गया है कि बत्रादि परिग्रहका त्यागकर नि बन गया और दीक्षा लेकर प्रवजित हो गया है ऐसा मुनि यदि ऐहिक कार्यों में प्रवृत्त होता है अर्थात् भेदाभेदरूप रत्नत्रय भावके नाशक ख्याति पूजा-लाभके निमित्तभूत ज्योतिष-मंत्रवाद और वैद्यकादि जैसे जीवनोपायके लौकिक कर्म करता है, तो वह तप-संयमसे युक्त हुआ भी 'लौकिक' (दुनियादार) कहा गया है ।
इसके अन्तर्गत प्राचार्य तथा विद्वान् कदापि नहीं जो पूजा-रान-मतादिके शुभ मायाको'' बतलात हैं। तब कानजी महाराजने उन्हें 'लौकिक जन' ही नहीं, किन्तु 'अभ्यमती' तक बतलाकर जा उनके प्रति गुरुवर अपराध किया है उसका प्रायश्चिस उन्हें स्वयं
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करना चाहिए। ऐसे वचनानयके दोष निर वचन कभी कभी मागको बहुत बड़ी हानि पहुँचाने के कारण बन जाते हैं। शुद्धभाव यदि सभ्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्तिका मार्ग हे साधन है । साधनके बिना साध्यकी प्राप्ति नहीं होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी ? सामरूप मार्गहीन सीका तीर्थ है धर्म है, और उस मार्ग का निर्माण व्यवहारनय करता है। शुभभावांके अभाव में अथवा उस मार्गके कटजाने पर कोई शुद्धस्वको प्राप्त नहीं होता। शुद्धात्मा के गीत गाये जायें और शुद्धात्मा तक पहुँचनेका मार्ग अपने पास हो नहीं, तब उन गीतले क्या नतीजा ? शुभभावरूप मार्गका उत्थापन सचमुच मे जैनशामनका उत्थापन है और जैन सार्थकेोपकी और दम बढ़ाना है ही कैसी भी भूल ग़लती अजानकारी या नासमझीका परिणाम क्यों न हो?
शुभ अटकने से डरने की भी बात नहीं है | यदि कोई शुभ में अटका रहेगा तो शुद्धस्वके निकट तो रहेगा-अन्यथा शुभके किनारा करने पर तो इधर-उधर अशुभ राग तथा द्वेषादिकमं भटकना पड़ेगा और फलस्वरूप अनेक दुर्गतियों में जाना होगा। इमीमें श्री पूज्यपादाचार्य ने इष्टोपदेशले ठीक कहा है:
वरं त्रवैः पदं देवं नाऽत्रतैर्चत नारकम् । छायाऽऽतपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयनाहान || श अर्थात्यवादि शुभ कर्मोंके अनु ठानद्वारा देवपद (स्वर्ग) का प्राप्त करना अच्छा है, न कि हिमादि अवतरूप पापकर्मीको करके नरकपदको प्राप्त करना। दोनों बहुत बड़ा अन्तर उन दा पथिकोंके समान है जिनमें से एक छायामे स्थित डाकर सुखपूर्वक अपने माथीकी प्रतीक्षा कर रहा है और दूसरा वह जां तेज धूप में खड़ा हुआ अपने साथीका बाट देख रहा है और श्रातपजनित कष्ट उठा रहा हूँ। साथीका अभिप्राय यहाँ उस मुद्रय-क्षेत्र का भावकी सामीज की प्राप्ति सहायक अथवा निमित्तभूत होती है।
कुन्दकुन्दाचार्यने भी इस बातको माडी 'वर वय-नवहिं सग्गी' इत्यादि गाथा नं किया है। फिर तुमसे कम डरनेकी की सी बात है जिसकी चिन्ता कानजी महाराजको मताती है,