Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 354
________________ किरण १] समन्तभद्र - भारती [ ३ - दोषाऽऽतरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात । क्वचिधया स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्ष्यः ॥४॥ (यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसम अज्ञान-रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म यावरणोंकी पूर्णतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं है; क्यों कि) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहींकहीं सातिशय हानि देखने में आती है-अनेक पुरुषांम अज्ञान तथा राग-द्वेष-काम-क्रोधादिक दोषोंकी एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेपमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पूर्णत: अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि (सुवर्णादिकम) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य और अन्तरंग मलका पूर्णतः क्षय हो जाता है-अर्थात् जिस प्रकार कि-कालिमादि मजसे बद्ध हा सुवर्ण अग्निप्रयोगादिरूप योग्य साधनोंको पाकर उस सारे बाहिरी तथा भीतरी मलसे विहीन हुमा अपने शुद्ध सुवर्णरूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार द्रव्य तथा भावरूप कर्ममनसे बद्ध हुमा भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि योग्य साधनोंके बलपर उस कर्ममलको पूर्णरूपसे दूर करके अपने शुद्धात्मरूप परिणत हो जाता है। अतः किसी पुरुष विशेषमें दोषों तथा उनके कारणांकी पूर्णत: हानि होना असम्भव नहीं है। जिस पुरुष में दोषों तथा भावरणोंकी यह निःशेष हानि होती है वही पुरुष प्राप्त अथवा निदोष सर्वज्ञ एवं लोकगुरु होता है।' सूक्ष्मान्तरित-दार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिगिति मर्वज्ञ-संस्थितिः ॥५॥ 'यदि यह कहा जाय कि दोषों तथा प्रावरणोंकी पूर्णत: हानि होने पर भी कोई मनुष्य अतीत-अनागतकाल सम्बन्धी सब पढाणको अनिदरवी सारे वर्तमान पदार्थोंको और मम्पूर्ण सूक्ष्म पढ़ायौँको सामान रूपसे नहीं जान सकमा , मो वह ठीक नही है; क्योंकि' मूक्ष्मपदार्थ-स्वभाव विषकर्षि परमाणु प्रादिक-,अन्तरित पदार्थ कालसे अन्नरको लिये हए कालविकपि राम रावणादिक, और दूरवर्ती पदार्थ-क्षेत्रमे अन्तरको लिये हर क्षेत्रविप्रकर्षि मेरु हिमवानादिक-अनुमेय (अनुमानका अथवा प्रमाणका विषय ) होनेसे किसी न किमीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जैसे अग्नि आदिक पदार्थ जो अनुमान या प्रमाणका विषय हैं वे किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जिसके सूक्ष्म, अन्तरित और दरवर्ती पदार्थ प्रत्यक्ष हैं वह मज्ञ है। इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक स्थिति, व्यवस्था अथवा सिद्धि भले प्रकार सुघटित है। -युगवीर , प्रमाणका विषय 'मेय' कहलाता है। अनुमेय का अर्थ 'अनुगतं मयं मानं येषां ते अनुमेया. प्रमेया इत्यर्थः हम वसुनंद्याचार्यके वाक्यानुसार 'प्रमेय' भी होता है और इस तरह अनुमेयस्व हेतुमें प्रमेयस्व हेतु भी गर्भित है। मिथ्यात्वको महत्ता चित्तकी चचलताका कारण अंतरङ्ग कषाय है। वैसे चित्त तो चतन्य आत्माके चेतना गुणका परिणमन है, किन्तु कषायदेवीकी इसके ऊपर इतनी अनुकम्पा है कि जागृत अवस्थाकी तो कथा दर रहे, स्वप्नावस्थामें भी उसे प्रमका प्याला पिलाकर बेहोश बनाये रहती है और यह प्याला भी ऐसा है कि मद्यसे भी अधिक उन्मत्त करता है। मादक द्रव्यका पान करने वाला तो उतना उन्मत्त नहीं होता, बाह्य शरीरकी चेष्टाए ही उसकी अन्यथा दिखती हैं, घर जाना हो तो म्खलद्गमन करता हुआ घरके सम्मुख ही जाता है परन्तु यहाँ तो उसके विपरीत आत्मतत्वसे बाह्य शरीरमें ही स्वतश्वका अध्यवमाय कर के अहर्निश उसीके पोषणमें पूर्ण शक्तियों का उपयोग करके भी यह मोही जीव भानन्दका पात्र नहीं होता । बलिहारी इम मिथ्यादर्शनकी। (वर्णी वाणीसे)

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