Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 353
________________ २] अनेकान्त [ वर्ष १३ बतलाया जाय तो आागम उन मायावियांका भी है वे अपने ववनरूप श्रागमके द्वारा उन श्रतिशयको मायाचारजन्य होने पर भी सत्य हो प्रतिपादित करते हैं। और यदि अपने हो भागम (जैनागम) को इस विषय में प्रमाण माना जाय तो उक्त हेतु भागमाथि उगा है, और एक साथ उसके द्वारा दूसरोंके यथार्थ वस्तु स्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता । अतः उक्त कारण-कलापरूप हेतु आपकी महानता एवं प्राप्तताको व्यक्त करने में असमर्थ है और इसीसे मेरे जैसोंके लिए एक प्रकारसे उपेक्षणीय है। अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादि-महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रामदिमत्सुमः ॥ २ ॥ 'यह जो आपके शरीरादिका अन्तर्बाह्य महान् उदय है-रंग शरोरारा रोग अपमृत्यु आदिके अभावको और पूर्व अनुपम सौन्दर्य के साथ गौर वयं रुधिरके संचार सहित निम्बेदना सुरमिता निखिए हुए है- जी साथ ही दिव्य सत्यादिरूप] मिथ्या न होकर वास्तविक और मायावियोंम नहीं पाया जाता, ( उसीके कारया यदि आपको महान् पूज्य एवं प्राप्त पुरुष माना जाय तो यह हेतु व्यभिचार दोष दूषित है; श्यक) यह (विदा महादव) रागादिसे युक्तराम द्वेष-कामकांधमानाबाद पायों अनिभूत स्वर्ग देवोंमें भी पाया जाना है यही यदि महानता ताका हेतु हा ता स्वर्गेक रागी, द्वेषी, कामी तथा क्रोधादि कषाय दोषों से दूषित देव भी महान् पूज्य एवं प्राप्त ठहरें; परन्तु वे वैसे नहीं हैं, अतः इस 'अन्तर्बाह्य विप्रहादि महोदय' विशेषणके मायावियो न पाये जाने पर भी रागादिमान् देवामें उसका सर होनेके कारण वह व्यहेतुक नहीं रहता और इसलिए उससे भी आप जैसे बा : कोथबोध नहीं हो सकता ) - ( यदि कहा जाय कि बातिया कर्मोंका अभाव होने पर जिस प्रकारका विग्रहादि महोदय आपके प्रकट होता ई उस प्रकारका विग्रहादि महोदय रामादियुक देवांमें नहीं इया तो इसका क्या माय दोनांका विमादि महादय अपने प्रत्यक्ष नहीं है, जिससे तुलना की जा सके । यदि अपने ही आगमको इस विषय में प्रमाण माना जाय तो यह हेतु भी आगमश्रित ठहरता है और एक मात्र इसीसे दूसरोंको यथार्थ वस्तु-स्थितिकास्थय पुत्र विश्वास नहीं कराया जा सकता । अतः यह विग्रहादि महोदय हेतु भी आपकी महानता व्यक्त करने में असमर्थ होनेमें मेरे जैसो के लिए उपेक्षणीय है । तीर्थंकृत्समयानां च परस्पर विरोधत: । सर्वेषामाप्ता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरुः ||३|| ॥३॥ ( यदि यह कहा जाय कि श्राप तीर्थंकर है-संसारसे पार उतरने के उपायस्वरूप भागम तीर्थके प्रवर्तक हैं--और इसलिए प्राप्त सर्वज्ञ होने में महान् दें, तो यह कहना भी समुचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि तीर्थकर तो दूसरे सुगनादिक भी कहलाते है और वे भी संसारसे पार उतरने अथवा निवृति प्राप्त करने के उपास्वरूप आगमतीर्थंके प्रवर्तक माने जाते हैं, तब वे सब भी प्राप्त-सर्वज्ञ ठहरते हैं, अत. तीर्थंकरस्वहेतु भी व्यभिचार-दोषसे दूषित है। और यदि सभी तीर्थंकरोको प्राप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात भी नहीं बनती; क्योंकि) तीर्थंकरोंके आगमों में परम्पर विरोध पाया जाता है जो कि सभीके आप होने पर न होना चाहिए। अत इस विरोधदीपके कारण सभी तीर्थकरों के आपदा-निर्दोष सर्वशता घटित नहीं होता।' ( इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन परस्पर विरुद्ध आगमक कोई एक भी प्राप्त नहीं है और यदि है तो वह कोन है? इसका उत्तर इतना ही है कि जरूर हो सकता है और वह यही पुरुष हो सकता है जो चित् दी हो चैतन्यके पूर्व अर्थात् जिसमें दोषों तथा आवश्यक पूर्णतः हानि हो चुकी हो।" प्ररूपक सभी तीर्थकरों में उनमें कोई तीर्थंकर आम विकासको लिए हुए ह

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