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किरण ३ अहिंसातत्त्व
[६३ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भन न होने में सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया है। साथ तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता ? अतः जब जैनी ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषय में यहाँ तक लिखा अहिसा भावोंके ऊपर ही निर्भर हैं तब कोई भी वुद्धिमान है कि यदि त्रैलोक्यको चलायमान कर देनेवाला वज्रपात जैनी अहिमाको अव्यवहार्य नहीं कह सकता।
श्रादिका घोर भय भी उपस्थित होजाय तो भी सम्यग्दृष्टि अहिंसा और कायरतामें भेद
पुरुष निःशंक एवं निर्भय रहता है--वह डरना नहीं है। अब में पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर आकर्षित भार न अपन ज्ञानस्वभावसे न्युन हाता है, यह सम्यग्दृष्टिकरना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंमा तत्त्वको नहीं समझकर का हा साहम ह । इमसे स्पष्ट है यात्म निभयी-धीर-वीर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया है उनका कहना
पुरुष ही मच्च हिसक हो सकते हैं, कायर नहीं। वे तो नितान्त भ्रममूलक है।
ऐसे घोर भयादिक पाने पर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका - अहिंसा और कायरतामें बड़ा अन्तर है। अहिंसाका
परित्याग कर देते है। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुप्यम अहिंसा सबसे पहला गुण अात्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरताको
जैसे गम्भीर तत्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी स्थान नहीं । कायरना पाप है, भय और मंकोचका परिणाम
अहिंसापर कायरताका इल्जाम लगाकर उस अव्यवहार्य चल संचालन मा नहीं
कहना निरी अज्ञानता है। वीरता नो ग्रान्माका गुग है। दुर्बल शरीरस भी शस्त्रसंचा
जैन शासन में न्यूनाधिक योग्तावाले मनुष्य अहिंसाका लन हो सकता है। हिमक वृतिय या मांसभक्षणस नो करता
अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये जैनधर्ममें पानी है, वीरता नहीं, परन्तु हिमास प्र म, नम्रता, शान्ति,
अहिंसार देशहिमा और मर्वअहिंसा अथवा अहिंसा-अणुव्रत सहिष्णुता और शौयादि गुण प्रकट होने है।
और हिमा-महावत आदि भेद किये गये है। जो मनुष्य दुर्बल आत्मायाम अहिमाका पालन नहीं हो सकता
पूर्ण अहिंमांक पालन करनेमें असमर्थ है, वह देश अहिंसाका उनमें सहिपाना नहीं होती । अहिंसाकी परीक्षा अन्याचारांक
पालन करता है, इसीसे उसे गृहस्थ, अगुवनी, दशवती या अत्याचारोंका प्रकार करनेकी मामय ग्यते हुए भी उन्हें
दशयनी नामसे पुकारते हैं। क्योंकि अभी उसका सांसारिक हमन-पने महल में है. किन्तु प्रतीकारकी मामय अभाव
दहभोगांमे ममन्च नहीं छटा है-उसकी प्रान्मक्रिका पूर्ण में अत्याचार्गक श्रन्याचाराका चुपचाप अथवा कुछ भी विरोध
'विकास नहीं हुआ है-यह तो अम, मषि, कृषि, शिल्प, किये बिना मह लेना कायरता है-पाप है--हिमा है। कायर
वाणिज्य, विद्यारूप पट कोम शक्त्यानुसार प्रवृनि करता मनुष्यका अान्मा पतिन होता है, उसका अन्त.करण भय हुआ एक दश
हुश्रा एक दश अहिंसाका पालन करता है। गृहम्यअवस्थामें और संकोच अथवा शंकासे दबा रहता है। उसे भागन
चार प्रकारकी हिंमा संभव है। मंकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी भयकी चिन्ता सदा घ्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने
. और विरोधी । इनमेंसे गृहस्थ सिर्फ एक संकल्पी.हिंसा-मात्रऔर धनादि सम्पत्तिके विनाश होने की चिन्तास वह मदा।
का त्यागी होना है और वह भी ग्रम जीवोंकी। जैन पीटित एवं सचिन्त रहता है। इसीलिये वह आत्मबल और..
भाचार्योने हिमांक इन चार भेटीको दो भागम समाविष्ट
किया है और बताया है कि गृहस्थ-अवस्थामे दो प्रकारकी मनोबलकी दुर्बलनाक कारण-विपनि पाने पर अपनी रक्षा
· हिंसा हो सकती है, पारम्भजा ओर, अनारम्भजा । श्रारम्भजा भी नहीं कर सकता है। परन्तु एक सम्यग्दृष्टि अहिंसक
-हिमा कटने, पीसने श्रादि गृहकार्यो अनुष्ठान और आजीपुरुष विपनियोंक पानेपर कायर पुरूपकी नरह घबराना नहीं
विकाके उपार्जनाधिस सम्बन्ध रखती है, परन्तु दृमरी हिमा. थौर न रोना चिम्लाता ही है किन्तु उनका स्वागत करना है .
गृही कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे और महर्प उनको महनक लिये टयार रहता है नया अपनी :
होने वाले जीवोंके घातकी भार मंकन करती है। श्रर्थान् दो सामथ्यक अनुसार उनका धीरतासे मुकाबिला करना है
इंद्रियावि सजीवांका संकल्पपूर्वक जान बूझकर मनाना उस अपने मरने जीन और धनादि सम्पत्तिक समूल विनाश ... होनेका कोई डर ही नहीं रहता, उमका श्रामबल और
सम्मबिट्टी जीवा णिस्संका होति णिच्भया तण । मनोबल कायर मनुष्यकी भांति कमजोर नहीं होगा क्योंकि सत्तभविपमुक्का जम्हा तम्हा दुणिम्मका ।। उसका आमा निर्भय है--सप्तभयोम रहिन है। जन मद्धांत
समयमारे. कुन्दकुन्न २२८