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किरण]
प्रवृत्ति संम्मिश्रणसे हिलाके नव प्रकार हो जाते हैं और कृत-स्वयं करना, कारित दूसरोंसे कराना, अनुमोदन - किमी को करना हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त करना, इनसे गुणा करने पर हिंसा २० भेद होते हैं। चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके वश होते है । इसलिये हिंसा सब मिलाकर स्थलरूपसे १०८ भेट हो जाते हैं। इन्हीके द्वारा अपनेको तथा दूसरे जीवोंको दुखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया जाता है । इसीलिये इन क्रियायको हिंसाकी जननी कहते हैं हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थोंमें बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता है
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सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते त्रयस्थावराङ्गनाम । प्रमत्तयोगतः प्रारणा द्रव्य भावस्वभावका ॥ - अनगारधर्मामृनं. श्राशाधरः ४, २२ प्रथांत-क्रोध-मान माया और लोभ श्राधीन होकर अथवा श्रयन्नानारपूर्वक मन-वचन-काय की प्रवृत्ति त्रमजीवोंपशुपक्षी मनुष्यादिप्राणिया स्वाचर जीवों के. पृथ्वी, जन्म हवा और वनस्पति श्रादिमें रहने वाले सूक्ष्म जीवोंक - द्रव्य और भावप्राणांका घात करना हिंसा कहलाता है। हिंसा नही करना सो श्रहिंसा है अर्थात प्रमाद व पाय निमित्तमे किसीभी संचनन प्राणीको न मनाना, मन वचन कायसे उसके प्राणों बात करनेमें प्रवृत्ति नहीं करना न कराना और न करते हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' हे । श्रथवा-
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अहिंसात्
रागादयामगुवा अहिमगमेति भामिदं समये । सितहिमेत जिहि रिरिहा || -नस्वार्थवृत्ती, पूज्यपादन उद्धृतः । अर्थात् आत्मामें राग- पादि विकारोंकी उत्पांत नहीं होने देना 'असा' है और उन विकारोंकी अमा उत्पत्ति होना 'हा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि आत्मा जब राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान- माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती है तर ज्ञानादि रूप ग्रामस्वभावका धान हो जाता है इसीका नाम भाव हिमा है और इसी भावमा भ्रम परिणामको विकृति जो अपने अथवा दमक इल्यास बान हो जाता है उसे द्रव्यहिमा कहते हैं।
हिंसा दो प्रकार की जाती है— कपाय और प्रमादसे ।
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जब किसी जीवको क्रोध, मान, माया और लोभादिके कारण या किसी स्वार्थवश जानबूझ कर मनाया जाता है या मनाने श्रथवा प्राणरहित करनेके लिए कुछ व्यापार किया जाता है उसे कपायसे हिया कहते हैं और जब मनुष्यकी आहस्यमय असावधान एवं अयत्नाचार प्रवृत्तिसे किसी प्राणीका वधादिक हो जाता है राय यह प्राइसे हिंसा कही जाती है । इसमे इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य बिना किसी कषायक अपनी प्रवृत्ति बन्नाचारपूर्वक माचधानीमे करता है उस समय यदि देवयोगसे अचानक कोई जीव आकर मर जाय तो भी वह मनुष्य हिंसक नहीं कहा जा मकताः क्योंकि उस मनुष्यकी प्रवृत्ति कवावयुक नहीं है चीर न हिंसा करनेकी उसकी भावना ही है यद्यपि इयहिया जरूर होती है परन्तु तो भी वह हिसक नहीं कहा जा सकता और न जैनधर्म इस प्राणिधानको हिंसा कहता है। हिंसात्मक परतही हिंसा है, केवल इन्पहिया हिंसा नहीं कहलानी, द्रव्यहिसाकी तो भावहिसाकं सम्बन्धसे ही हिंसा कहा जाता है। गस्तवमे हिंसा तब होती है जब हमारी परियाति प्रमादमय होती है अथवा हमारे भाव किसी जीवको दुःख देने या मनाने होते हैं। जैसे कोई समर्थ ढाक्टर किसी रोगीको नीरोग करनेकी औपरेशन करता है और उसमें देव
योग रोगा की मृत्यु हो जाती है तो वह डाक्टर हिंसक नहीं कहला सकता और न हिमांक अपराधका भागी ही हो सकता हे । किन्तु यदि डाक्टर लोभादिक वश जान बूझकर मारनेके इरादे से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती है तो जरूर वह हिसक कहलाता है और दण्डका भागी भी होता है। इसी वानको नाम स्पष्ट रूपसे यो घोषण करता है :---
उच्चालम्मिपादे इरियासमिदम्म सिमामट्टा | श्रवादेज्ज कुलिङ्गा मरेज्ज तं जोगमासेज्ज ॥ हि
तम्म नमित्त बंधो मुटुमावि देखिदों समये । वृत्ती ज्यान उन अर्थात जो मनुष्य भालकर मावधानामे मार्ग पर चल रहा है उसके पैर उठाकर रखनेपर यदि कोई जन्तु अकस्मात परके नीचे श्रा जाय और दब कर मर जाय तो उस मनुष्यको उस जीवके मारने का थोडा सा भी पाप नहीं लगता है ।
जो मनुष्य प्रमादी है--धयन्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना है उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हुई है तो भी