Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 326
________________ किरण २] निसीहिया या नशियां [४५ - भरहेरावएसु दसम पंचसु महाविदेहेसु ।' (क्रियाकलाप है, उसे निसीहिया या निषिद्धिका कहा गया है। यहाँ पर पृष्ठ ५६)। टीकाकारने 'नैवेधिक्यां शवप्रतिष्ठापनभूम्याम्' ऐसा स्पष्ट अर्थात् जिनोंको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार अर्थ किया है। जिसकी पुष्टि भागेकी गाथा नं० ५५४२ से हो । निषीधिकाको नमस्कार हो. नमस्कार हो, नमस्कार हो। भी होती है। परहंत, सिद्ध, बुद्ध आदि अनेक विशेषण-विशिष्ट महति- भगवती श्राराधनामें जो कि दिगम्बर-सम्प्रदायका प्रति महाबीर-वर्धमान बुद्धि ऋषिको नमस्कार हो, नमस्कार हो, प्राचीन प्रन्थ है वसतिकासे निषीधिकाको सर्वथा भिक अर्थमें नमस्कार हो। लिया है। साधारणतः जिस स्थान पर साधुजन - वर्षाकालमें अप्टापद, मम्मेदाचल, उर्जयन्त, चंपापुरी, पावापुरी, रहते हैं, अथवा विहार करते हुए जहां रात्रिको बस जाते हैं, मध्यमापुरी और हस्तिपालितसभामें तथा जीवलोकमें जितनी उसे वमतिका कहा है। वसतिका का विस्तृत विवेचन करते भी निषाधिकाएं है, तथा इषप्राग्भारनामक अष्टम पृथ्वी- हुए लिखा है:नलक अग्र भागपर स्थित मिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्रसे विमुक्त, "जिस स्थानपर स्वाध्याय और ध्यानमें कोई बाधा न हो, नाराग, निमल, मिद्धोकी तथा गुरु, प्राचार्य, उपाध्याय, स्त्री, नपुंसक, नाई, धोबी, चाण्डाल आदि नीच जनोंका प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर (गणधर) और चार प्रकारके श्रमण- सम्पर्क न हो, शीत और उष्णकी बाधा न हो, एक दम बंद संघकी जो पांच महाविदहोंमें और दश भरत और दश या खुला स्थान न हो, अंधेरा न हो, भूमि विषम-नोचीऐरावत क्षेत्रांम जो भी निषिद्विकाएँ है, उन्हें नमस्कार हो३। ऊँची न हो, विकलत्रय जीवोंकी बहुलता न हो, पंचेन्द्रिय इस उद्धरणसं एक बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो पशु-पक्षियों और हिंसक जीवोंका संचार न हो, तथा जो जाती है कि निर्धाधिका उस स्थानका नाम जोमदा एकान्त, शान्त, निरुपद्रव और निाक्षेप स्थान हो, ऐसे मुनि कोका क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं और जहां उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गिरि-कन्दरा उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गा और भूमि-गुहा पर प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर कुलकर और ऋषि, श्राद आदि स्थानमें साधुओंको निवास करना चाहिए । ये वसतियति, मुनि, अनगाररूप चार प्रकारक श्रमण समाधिमरण कार करते हैं, वे सब निपाधिकाएँ कहलाती है। (दग्यो-भग० अाराधना गा० २२८-२३०,६३३-६४१) बृहन्कल्पमूनियुक्रिमें निपाधिकाको उपाश्रय या ___ परन्तु वसतिकासे निपीधिका बिलकुल भिन्न होती है. वतिकका पर्यायवाची माना है। यथा इसका वर्णन भगवती आराधनामें बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें अवमग पडिमगसेजायालय, वमधी गिसीहियाठाणे। किया गया है और बतलाया गया है कि जिस स्थान पर ममाधिमरगा करने वाले क्षपकके शरीरका विसर्जन या अंतिम एगट्ट बंजगगाई उवमग वगडा य निक्खवो ॥२६॥ संस्कार किया जाता है, उसे निषाधिका कहते हैं। अर्थात-उपाश्रय, प्रतिश्रय, शय्या, श्रालय, वमति, यथा--निपीधिका-आराधकगरीर - स्थापनाम्थानम् । निषीधिका और स्थान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। (गा० १९६७ की मृलाराधना टीका) इम गाथाक टीकाकारने निषाधिका का अर्थ इस प्रकार साधुओंको श्रादेश दिया गया है कि वर्षाकाल प्रारंभहानकिया है : के पूर्व चतुर्माम-स्थापनके साथ ही निषीधिका-योग्य भूमिका ___"निषेधः गमनादिव्यापारपरिहारः, स प्रयोजन अन्यषण और प्रतिलम्बन करलेवे । यदि कदाचिन वपाकालमें मस्याः, तमहतीति वा नैषेधिकी।" किसी माधुका मरण हो जाय और निषीधिका योग्य भूमि अर्थात्-गमनागमनादि कायिक व्यापारोंका परिहार कर पहलेसे देव न रग्बी हो, तो वर्षाकालमें उसे हुदनेके कारण साधुजन जहां निवास करें, उसे निषीधिका कहते हैं। हरितकाय और त्रम जीवोंको विराधना सम्भव है, क्योंकि इससे आगे कल्पसूत्रनियुक्रिकी गाथा नं०५५४६ में उनसे उस समय सारी भूमि अाच्छादित हो जाती है। अतः भी 'निमीहिया' का वर्णन पाया है पर यहाँ पर उसका वर्षावास के साथ ही निषीधिकाका अन्वेषण और प्रतिलेखन अर्थ उपाश्रय न करके समाधिमरण करने वाले हाक साधुके कर लेना चाहिए। शरीरको जहां छोड़ा जाता है या दाह-संस्कार किया जाता भगवती अाराधनाकी वे सब गाथाएँ इस प्रकार हैं:

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