Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 313
________________ ३४] अनेकान्त [वर्प १३ कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वैरिषु ॥८॥ 'जो लोग एकांतके ग्रहण-स्वीकरणमें पासक है, अथवा 'एकांतरूप ग्रहके वशीभूत हुए उसीके रंगमें रंगे हैं-सर्वथा एकान्त पक्षके पक्षपाती एवं भक्त बने हुए हैं और अनेकान्तको नहीं मानते, वस्तु में अनेक गुण-धर्मों (अन्तों) के होते हुए भी उसे एक ही गुण धर्म (अन्त) रूप अंगीकार करते हैं--(और इसीसे) जो स्व-परके बैरी हैं-दूसरोंके मिन्द्वान्नोंका विरोध कर उन्हींके शत्रु नहीं, किन्तु अपने एक सिद्धान्तस अपने दूसरे सिद्धान्तोंका विरोध कर और इस तरह अपने किसी भी सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करने में समर्थ न होकर अपने भी शत्रु बने हुए है-उनमेंसे प्रायः किसीके भी यहां अथवा विमोके भी मतमें, हे वीर भगवान् ! न तो कोई शुभ कर्म बनता है, न अशुभ कर्म, न परलोक (अन्य जन्म बनता है और (चकारसे) यह लोक (जन्म) भी नहीं बनता, शुभ-अशुभ कर्मोंका फल भी नहीं बनता और न बन्ध तथा मोक्ष ही बनते हैं-किमी भी तत्त्व अथवा पदार्थको सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठता । और इस तरह उनका मन प्रत्यक्षसे ही बाधित नहीं, बल्कि अपने इष्टसे अपने इष्टका भी वाधक है।' भाषकान्ते पदार्थानामभावानामपलवाद । सर्वात्मकमनावन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ (हे वीर भगवन् !) यदि पदार्थोके भाव (अस्तित्त्व) का एकान्त माना जाय, यह कहा जाय कि मय पदार्थ सर्वथा सत् रूप ही हैं, असत् (नास्तित्व) रूप कभी कोई पदार्थ नहीं है तो इससे प्रभाव पदार्थोंका-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावरूप वस्तु-धर्मोंका-लोप ठहरता है, और इन वस्तु-धर्मोंका लोप करनेस धम्नुतत्व (सर्वथा) अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और अस्वरूप हो जाता है, जो कि श्रापको इष्ट नहीं है-प्रत्यक्षादिक विरन्द होनसे श्रापका मत नहीं है। (किस अभावका लोप करनेसे क्या हो जाता अथवा क्या दोष आता है, उसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:-) कार्य-द्रव्यमनादि स्यात्प्रागमावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥ 'प्रागभावका यदि लोप किया जाय-कार्यरूप व्यका अपने उत्पादसे पहले उस कार्यरूपमें श्रभाव था इस बातको न माना जाय तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दतिक-अनादि ठहरता है और अनादि वह है नहीं, एक ममय उत्पस हुआ यह बात प्रत्यक्ष है। यदि प्रध्वंस धर्मका लोप किया जाय -कार्यद्रव्यमें अपने उम कार्यरूपसे विनाशकी शक्रि है और इसलिए वह वादको किसी समय प्रध्वंमाभावरूप भी होता है, इस बातको यदि न माना जाय-तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दादिक--अनन्तना-अविनाशताको प्राप्त होता है-और अविनाशी वह है नहीं, यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, प्रत्यक्षमें घटादिक तथा शब्दादिक कार्योका विनाश होते देखा जाता है। अतः प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका लोप करके कार्यद्रव्यको उत्पत्ति और विनाश-विहीन सदासे एक ही रूपमें स्थिर (सर्वथा नित्य) मानना प्रत्यक्ष-विरोधके दोषस दूषित है और इसलिए प्रागभाव तथा प्रध्वंसाभावका लोप किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । इन प्रभावोंको मानना ही होगा। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोह-व्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ 'यदि अन्याऽपोहका-अन्योन्याभावरूप पदार्थका-व्यतिक्रम, किया जाय-वस्तुके एक रूपका दूसरे रूपमें अथवा एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें प्रभाव है इस बातको न माना जाय-तो वह प्रवादियोंका विवक्षित अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व (अनिष्टात्माओंका भी उसमें सद्भाव होनेसे) अभेदरूप सर्वात्मक ठहरता है-और इसलिए उसकी अलगसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती। और यदि अत्यन्ताभावकासमलाप किया जाय-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें पर्वथा अभाव है इसको न माना जाय तो एक बन्यका तूसरेमें समवाय-सम्बन्ध (तादात्म्य) स्वीकृत होता है और ऐसा होने पर यह चेतन है, यह अचेतन है इत्यादि रूपसे उस एक तत्त्वका सर्वथा भेदरूपसे कोई व्यपदेश कथन) नहीं बन सकता।' -युगवीर

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