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सुखीसरीनिवास
३८] अनेकान्त
[अंक ७ लायड्म स्ट्रीट रायपेट्टा (मद्रास) की जमीनसे ५ जैन मूर्तियाँ सप्तमशताब्दीके प्रसिद्ध शैव सन्यासी 'तिरुज्ञानसम्बन्ध' भवन के लिए भीव खोदते समय प्राप्त हुई थीं। श्री सीताराम का यह भी का क्षेत्र था । तिरुज्ञानसम्बन्धने जैनों पर बहुत ने इनमेंसे ४ मूर्तियों तो किसी गाँवमें भेज दी थी और उत्पीडन किया था। एक मूर्ति अब भी उसी भवनके बाहरी आँगनमें पड़ी हुई है वीं 10 वीं शताब्दियों में मयिलापुरका अपने निकट जिसका फोटो मैने अभी ता. ४ मईको लिया था। यह के नगर सैनथामीसे धनिष्ट सम्बन्ध था। ऐसी जनश्रुति है पद्मासन मूर्ति महावीर स्वामी की है, और प्रायः ३८ इंच कि ११०० वर्ष पूर्व सेन्ट थामसने मयिलापुर और उसके ऊँची है (चित्र)।
निकटस्थ स्थानोंमें कृश्चियन धर्मका प्रचार किया था। मणिराजा सर असमलाई चेष्टिवर रोड, मद्रास, निवासी लापुरके सैनथामी गिरजाघरमें उनकी का है। उन्हींके नामसे रायबहादुर एस. टी. श्रीनिवास गोपालाचारियरके पास दश- उस अंचलका नाम मैनथामी पड़ा था। यह दुःखकी बात है बारह जैन मूर्तियाँ हैं । इसी प्रकार न जाने मद्रासके कितने कि गिरजाघरकी नींवमें प्राचीन मन्दिरोंके पत्थरोंका उपयोग ही अन्य स्थानोंमें जैन मूर्तियों पड़ी होंगी, जिनका हमें किया गया है। पता ही नहीं है। और कितनी ही भूगर्भ में होंगी।
सन् १४० में प्रसिद्ध भूगोलज्ञ टालेमीने दक्षिणभारतके अब हम पाठकोंको मद्रासके ही एक विशिष्ट अंचलके पूर्व उपकूल पर स्थित जिस महत्वपूर्ण स्थानका सम्बन्ध में कुछ बताना चाहते है-वर्तमान पौर-सीमान्तर्गत मलियारफाके नामसे वर्णन किया है वह और मयिलापुर 'मयिलापुर' नगरके दक्षिण भागमें अवस्थित है। इसकी दोनों अभिल हैं । मलियारफा, टामिल शब्द मयिलापुरका प्राचीनता कमसे कम २० शताब्दी (द्विसहस्र) काल की है। अनुवाद है। और उस समयके उच्च श्रेणीके 'ग्रीक-रोमन' भूगोलज्ञ और १६वीं शताब्दीमें 'दुआरेट वारवोसा, नामक प्रसिद्ध बणिकों ने इस नगरकी महानताका उल्लेख किया है। समुद्र यात्रीने क्रप्टानोंके इस पूज्य स्थानको उजड़ा हुआ
'मयिल' या 'मयिल' का अर्थ है मयूरनगर। तामिल देखा था। सन् १९९२में पुर्तगाल वासियोंने यहां उपनिवेश भाषामें मोरको मयिल कहते हैं। सन् १९५० में ईस्ट इंडिया बनाया और कुछ ही समय बाद सेन्ट थामसकी करके चारों कंपनी (अंग्रेजों) द्वारा फॉर्ट सेंट जार्ज दुर्गक निर्माणसे मद्रास- ओर एक दुर्गका निर्माण किया और उसका नाम रक्वा का उत्पादन सम्भव हुआ, और मयिलापुर उस नूतन नगरके 'मैन थामी दी मेलियापुर' । अन्तर्गत होकर उसमें मिल गया।
प्राचीन कालमें मयिलापुर (अपर नाम वामनाथपुर) ई०पू० प्रथमशताब्दीके उत्तरार्ध के पवित्र तिरुकुरल' जैनोंका एक महान केन्द्र था, वहां २२वें तीर्थंकर श्रीनेमिके अमर सप्टा (रचयिता) खोक प्रसिद्ध तामिल सन्त 'तिरु- नाथका प्राचीन मन्दिर था, यह मन्दिर उमी जगह पर था वल्लुवर' मयिलापुरके निवासी थे। ये जैनधर्मानुयायी थे जहां अब सैनथामी गिर्जाघर अवस्थित है । एक विवरणके (देखो. ए. चक्रवर्तीकी तिरुकुरल)। परम्परागत प्रवादसे ज्ञात अनुसार यह मन्दिर बढ़ते हुए समुद्रके उदरमें समा गया था होता है कि प्राचीनकालमें समुद्रतटके किनारे Foreshore और अन्य कई लोगोंके मतानुसार पुर्तगाल-वासियोंने धर्मउस अंश पर जहां भाटाके समय जल नहीं रहता है), द्वेषके कारण इसका विध्वंसकर इसकी सारी सम्पत्तिका अपमग्रिलापुरमें एक बड़ा मन्दिर था, जिसे समुद्र के बढ़ पानेके हरण कर लिया था। कारण त्या करना पड़ा था। इस घटनाका समर्थन जैन और कहते हैं कि वीं शताब्दीके शेष भागमें समुद्र बढकर कृश्चियन दोनों ही जन-श्रुतियोंसे होता है।
मन्दिरके निकट आ गया था और भय हुआ कि मन्दिर दूब मयिलापुर कांचीके पल्लवराज्यका पोताश्रय (बन्दर) जायगा, इससे वहां की मूल नायक प्रतिमा ( नेमिनाथकी) था। पल्लव नरेश नन्दिवर्मन तृतीयको मल्लयिवेन्दन अर्थात् वहांसे हटाकर दक्षिण भारकट जिलान्तर्गत चित्तामूरके मस्तयि था मामलपुरम् के नृपति और मयिलकलन् अर्थात् जैन मन्दिरमें विराजमान कर दी गई, जहां पर अब भी मयिलापुरके रक्षक और अभिभावकके बिरुद दिए गए थे। इस प्रतिमाकी पूजा होती है। उपयुक नेमिनाथ मंदिर तथा टोडमण्डलम्के पुलियूरका यह एक भाग था। यह नगर अन्य जैन मन्दिरोंके मयिलापुरमें अस्तित्व साहित्यिक और जैनों और शैवोंके धार्मिक कार्य-कलापका केन्द्र था । और पुरातात्विक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।