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किरण ५ ]
साहीका नाम चारित्र है जो चारित्रमोहने देशवासी सद कनके उदय महामन्द प्रशस्त ही है, सो चारित्रका मक है।' आगे लिखा है 'अशुभशुभ परिणाम बंधके कारण है-बीर शुद्ध परिणाम निर्जराके कारण है।'
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निर्जरा तत्त्वकी भूल में लिखा है कि 'बहुत कहा इतना समझ लेना निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है-सम्प नाना विशेष बाह्य साधन अपेक्षा उपचारले किए हैं- तिनकों व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा माननी- इस रहस्यको न जाने वाले वानिका भी सांचा अज्ञान नहीं है।
उसी प्रकणमें आगे है कि 'चारित्र है सो बीतराग भाव रूप है ता सगभावरूपसाधनको मोक्षमार्ग मानना मिथ्या बुद्धि है।' 'राम है सो चारित्रका स्वरूप नाहीं चारित्र विषै दोष है और भी कई स्थानों पर उलेख है अध्याय ७ से 'मोक्षमार्ग दो प्रकार है' ऐसी मान्यताको मिथ्या टहराते हुए लिखा है कि 'मोषमार्ग दो नही है मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकार है, सांचा निरूपण सो निश्चय और उपचार निरूपण मो व्यवहार — तातैं निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना ।
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श्री पं० मुख्तार सा० से नम्र निवेदन
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यत्न करे तो (योग) होय जाय बहुरि को दोपयोग ही को भला जानि ताका साधन किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे होय ।"
श्रध्याय ७ में उन्होंने स्पष्ट किया है—बहुरि व्रत नप श्रादि मोक्षमार्ग हैं नांही — निमित्तादिक की अपेक्षा उपचारने इनको मोक्षमार्ग कहिए है तानें इनको व्यवहार कह्या ।' 'बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटने की अपेक्षा बतशील संगमादिरुको मोमार्ग कला, सो इनहीकी मोदमार्ग न मानि सेना' 'निश्चयकरि वीरागभाव ही गोषमार्ग है। वीतरागभावनिके घर व्रतादिकके कदाचित् कार्यकारण पनो है
श्री मुख्तार मा० का ध्यान में आत्मधर्म वर्ष ७ अंक ४ श्रावण २४७७ पृष्ठ १४१ में प्रकाशित श्रीकानजी स्वामी "पुण्य-पाप और धर्मके सम्बन्ध में श्रात्मार्थी जीवका विवेक कैमा होता है" शीर्षक लेखकी ओर दिखाना चाहता हूं जिससे उनकी तथा उन्हींके समान अन्य विद्वानों की धारणा उनके सम्बन्धमें ठीक-ठीक तौर पर हो सके । उद्धरण विकारका कार्य करने योग्य है ऐसा मानने याला जीव विकारको नहीं हटा सकता कोई जीव आत्माको एकान्त शुद्ध ही माने अज्ञानभावले विकार करे तथापि न माने तो विकारको नहीं हटा सकता । पुण्य बन्धन है इसलिए मोक्षमार्ग में उसका निषेध है- यह बात ठीक है; किंतु व्यवहारसे भी उसका निषेध करके पापमार्गमें प्रवृति करे तो वह पाप तो कालकूट विषके समान है; अकेले पापले तो नरक निगोडमें आयेगा। श्रद्धामें पुण्य-पाप दोनों हेय हैं. किन्तु वर्तमान में शुद्धभाव में न रह सके तो शुभमें युक्त होना चाहिये किन्तु अशुभ में तो जाना ही नहीं चाहिए पुण्यभाव जोड कर पापभाव करना तो किसी भी प्रकार ठीक नहीं है। और यदि कोई पुरवभावको ही धर्म मान ले तो उसे भी धर्म नहीं होता ।”
इसी लेखमें श्रागे लिखा है कि “हे भाई! तू भी निर्विकल्प शुद्धभावको तो प्राप्त नहीं हुआ है और पुण्य भाव तुझे नहीं करना है तो तू क्या पापमें जाना चाहता है ?' 'इसलिये पुण्य पाप रहित आत्मा मान सहित वर्तमान योग्यता अनुसार सारा विवेक प्रथम समझना चाहिए । कोई शुभभावमें ही सन्तोष मानकर रुक जाये अथवा उससे धीरे-धीरे धर्म होगा—इस प्रकार पुण्यको धर्मका साधन माने तो उसके भी भव-चक्र कम न होंगे। धर्मका प्रारम्भ करनेकी इच्छा वालेको तीव्र आसक्ति तो कम करना हो चाहि किन्तु इससे तिर जाएगा। ऐसा माने वह भ्रम है। जीवको पापसे जुड़ा कर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है किन्तु पाप और पुण्य इन दोनोंसे रहित धर्म- उन सबका स्वरूप जानना चाहिये ।"
बादिको मोचमार्ग कहे, मो कहने मात्र ही हैं।' कि व्रतशील संयमादिका नाम व्यवहार नहीं इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है सो छोड़दे ।'
श्रागे इसी प्रकरणमें लिखा है कि "बहुरि शुभउपयोगको बन्धका ही कारण जानना - मोक्षका कारण न जाननाजातैं बन्ध और मोक्षके तो प्रतिपक्षीपना है— तातें एक ही भाव पुण्यबन्धको भी कारण होय और मोक्षको भी कारण होय ऐसा मानना भ्रम है ।"
"वस्तु विचारतें शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है""योपयोगको ही उपादेय मानि ताका उपाय करना - जहां शुभापयोग न हो सके यहाँ शुमोपयोगको होड शुभ विप्रवर्तना ।"
श्री कानजी स्वामी किसी भी प्रवचनमें "आत्मा एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट है" हमारे तो सुनने अथवा उनके किसी आगे भी लिखा है कि “शुभोपयोग भये. शुद्धोपयोगका साहित्यमें कहीं भी देखनेमें नहीं आया। यदि श्री मुख्तार