Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 273
________________ - - ६६] अनेकान्त । वर्ष १३ सर्वथा अवाश्य (निर्वचनीय या अवतव्य)है तो स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किमीको सत् मामा वस्तुतत्त्व 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बनता- जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग पाता है। और इस कहनेसे ही वह 'वाच्य हो जाता है, अवाच्य' नहीं पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो रहता; क्योंकि सर्वथा प्रवाश्यकी मान्यतामें कोई बचन- सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है। अथवा जिम व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।' रूपसे सत्व है उसी रूपसे असरवको और जिम रूपसे कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । असत्त्व है उसी रूपसे सत्वको माना जाय, तो कुछ भी तथोभयमवाच्यं च नय-योगान सर्वथा ॥ १४॥ घटित नहीं होता। अतः अन्यथा मानने में तत्त्व या वस्तुकी (स्याहाद-न्यायके नायक हे वीर मगवन् !) आपके कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित शासनमें वह वस्तुतत्त्व कथबित् (किमी प्रकारसे होता है।' सत्-रूप ही है, कथञ्चित् असत्-रूप हो है, कश्चित् क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः। उभयरूप ही है, कश्चित् श्रवक्तव्यरूप ही है। प्रवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।। १६ ॥ (सकारसे) कश्चित् सत् और अवक्तव्यरूप ही है; 'वस्तुतत्त्व कश्चिन क्रम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकश्चित् असत् और.अवक्तव्य रूप ही है, क्यश्चित् पाश्चत् की अपेक्षा द्वैत (उभय रूप-सदमदुरूप अथवा सदसत् और अवक्तव्यरूप ही है; और यह सब अस्तित्व-नास्तिस्वरूप-है और कश्चित युगपत् नयोंके योगसे है-वक्ताके अभिप्राय-विशेषको लिए हुए विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कथनमें वचनकी जो समभंगात्मक नय-विकल्प हैं उनकी विषक्षा अथवा प्रशक्ति-असमर्थताके कारण अवक्तव्यरूप है। (इन इटिसे है-सर्वथा रूपसे नहीं-नयष्टिको छोष कर चारोंके अतिरिक्त) सत्. असत् और उभयके उत्तर में सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूपमे कोई भी अवक्तव्यको लिए हए जो शेष तीन भंग-सदवतन्य, वस्तुतत्व व्यवस्थित नहीं होता। असदवतव्य और उभयावक्तव्य-हैं वे (भी) अपने सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । अपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुटित है- अर्थात् असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । १५ ॥ वस्तुतस्त्र यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कञ्चत् (हे वीर जिन!) ऐसा कौन है जो सबको- अमितरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा चेतन-पचेतनको, द्रव्य-पर्यायादिको, भ्रान्त-अभ्रान्तको कहा न जा सकनेके कारण अवकन्यरूप भी है और अथवा स्वयंके लिए इष्ट अनिष्टको-स्वरूपादिचतुष्टयकी इसलिए स्यादरत्यवक्तम्यरूप है इसी तरह म्याशास्स्यदृष्टिसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, म्बकाल और स्वभावकी वक्तब्य और म्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य इन दा भंगांकी अपेक्षासे-सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयकी भी जानना चाहिए।' दृष्टिसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकास और परभावकी अपेक्षासे-असत् रूप ही अंगीकार न करे ? -कोई अस्तित्वं प्रतिपेध्ये नाऽविनाभाव्येक-धर्मािण । भी लौकिकजन, परीक्षक, स्थावादी.सर्वथा एकान्तवादी विशेषणत्वात्साधर्म्य यथा भेद-विवक्षया ।। १७ ।। अथवा सचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लंप एक धर्मी में अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ करने में समर्थ न होनेके कारण इस बावको न मानता हो। अविनाभावी है-मास्तिस्वधर्मके विना अस्तित्व नहीं यदि (स्वयं प्रतीत करता हुमा भी कुनयके वध विपरीन- बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है बुद्धि अथवा दुराग्रहको प्राप्त हुमा) कोई ऐसा नहीं वह अपने प्रतिषेध्य (प्रतिपक्ष धर्म) के साथ अविनाभावी मानता है तो वह (अपने किसी भी इष्ट तत्वमें) होता है-जैसे कि (हेतु-प्रयोगमे) साधर्म (अन्वयव्यवतिष्ठित अथवा व्यवस्थित नहीं होता है-उसकी हेतु) भेद-विवक्षा (वैधयं अथवा व्यतिरेक-हेतु) के कोई भी तत्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है । व्यतिरेक ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें (वैधयं) के बिना अन्वय (साधम्य) और मन्वयके वस्तुत्वकी व्यवस्था सुटित होती है, अन्यथा नहीं। बिना व्यतिरेक पारित नहीं होता।

Loading...

Page Navigation
1 ... 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386