Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 295
________________ अनेकान्त [वर्ष १३ वीर जिनवर वीर जिनवर नमू ते सार । तीर्थकर थी। इस उल्लेख परसे भी श्रार्या रस्नमती विक्रमकी १६वीं चौबीसवें । मनवांछित फलबहु दान दातार । निरमल शती मध्यकी जान पढ़ती हैं। सारदा स्वामिनी वली तबू । लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र अनेक विदुषी नारियोंने केवल अपना ही उत्थान नहीं किया, मनोहर । ज्ञान भूपण पाय प्रणमिनि। रत्नमति कहि अपने पतिको भी जैनधर्मकी पावन शरणमें ही नहीं लाई चंग, रास करूँ अति रूबडो । श्रीसमकिततणु प्रत्युत उन्हें जैनधर्मका परम आस्तिक बनाया है और अपनी भनिरास ॥१२॥ संतानको भी सुशिक्षित एवं श्रादर्श बनानका प्रयत्न किया भारगमनी है । उदाहरण के लिये अपने पति मगध देशके राजा अंणिक 1 चवीस जिनवर पायनमीप, सारदा तणिय पसायनु। (बिम्बमार) को भारतीय प्रथम गणतन्त्रके अधिनायक मूलमंघ महिमानिलुए, भारती गच्छि सिंणगारनु ॥१॥ लिच्छिवि वंशी राजा चेटककी मुपुत्री चेलनाने बौद्धधर्मस पराङ् मुम्बकर नैनधर्मका श्रद्धालु बनाया है जिसके अभयकुंदकुंदाचारिजि कुलिए, पद्मनन्दी शुभभावनु । कुमार और चारिपेण जसे पुत्र रत्न हुए जिन्होंने सांसारिक देवेन्द्रकीरति गुरु गुण निलुए श्रीविद्यानिंद महंतनु । तनु । सुग्ब और वैभवका परिन्यागकर आत्म-साधनाको कठोर तपश्रीर्माल्लभपण महिमा निलुए, श्रीलक्ष्मीचंद्र गुणवंतनु ॥३ श्चर्याका अवलम्बन किया था । वीरचंद्र विद्या निलुए, श्रीजानभूपण ज्ञानवन्तनु ॥४॥ इस तरह नारीने श्रमणसंस्कृतिमें अपना आदर्श जीवन गम्भीराणव, मेरु सारिपु धीरनु । वितानेका यत्न किया है। उसने पुरुषोंकी भांति प्रान्ममाधन दयाराणी जि श्रिम निवसए, ज्ञानतणु दातारनु ॥॥ और धर्ममाधनमें सदा श्रागे वढनेका प्रयत्न किया है। अन्तिम भाग नारी में जिनन्द्रभक्रिके माथ श्रत-भक्निमें भी तत्परता दग्बी शांती जिनवर शांती जिनवर नमिय ते पाय। जाती है, वे भूनका मयं अभ्यास करती थीं, समय-समय पर ग्रन्थ स्वयं लिम्वती और दूसरोंमे लिग्या-लिम्बाकर अपने राम कहूं सम्यकतणु सारदा तरिणय पसाय मनोहर । मानावग्नी कर्मक क्षयार्थ माधुग्री, विद्वानों और तत्कालीन कुंदकुंदाचारिजि कुलि पद्मनन्दि गुरु जागि। भट्टारकों तथा प्रायिकाओं को प्रदान करती थीं, इस विपया देविदकीरति तेह पट्ट हुव वादी मिरोमणि बन्याणि ।। मैकडों उदाहरण है, उन सबको न देकर यहाँ मिर्फ ५-६ दहा-विद्यानन्द तमु पट्ट हुनि मल्लिनूपण महंत। उद्धरण ही नीचे दिये जाने हैं :लदीचन्द्र तेह पछारिसिणु यति यमगर्माण मंत।। () मंथन १४६७ में काप्ठासंघक श्राचार्य अमरकोनि द्वारा वीरचन्द्र पाटि ज्ञानभूषण नीनि । चन्द्रमती बाई रचित 'पट कर्मोपदेश' नामक ग्रन्थकी प्रति ग्वालियर नमी पाय । रत्नमती यो पिय राम कम.विमलमती तंवर या तोमरवंशी गजा वीरमदेवके राज्यमें अग्रवाल कहिण थकी मार।। इति श्रीममाकितराम समाप्तः। श्रार्या माहू जैतूकी धर्मपत्नी सरन लिखाकर आयिका जनश्री रत्नमती कृतं ॥ भ.जारावजी पठनार्थ (श्रीरस्तु) की शिष्यणी प्रायिका बाई विमलश्रीको समर्पित की थी। आर्या रत्नमीन अपना यह राम अथवा रामा धाया (२) संवत १६८५ में अग्रवालवंशी माहू बच्छराजकी मना विमलमतीकी प्रेरणासे रचा था। श्रागा रानमतीकी गुरुपाणी साध्वी पन्नी 'पाल्हे ने अपने ज्ञानावरसी कर्मफे क्षपार्थ भार्या चन्द्रमती थी। यह ग्रंथ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके दच्यांग्रहकी ब्रह्मदनकृत वृत्ति लिखाकर प्रदान की। मध्यकालकी रचना जान पड़ती है। क्योंकि रत्नमतीकी उत्र गुरु परम्परामें निहित विमलमती वह विमलश्री जान पड़ती (३) संवत १५६५ में खण्डेलवालवंशी साहू छीतरमलकी है. जिनकी शिष्या विनयश्री भ. जमीचन्द्रजी के द्वारा पन्नी राजादीने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षयार्थ 'धर्मदीक्षिन थी, जिन्होंने पं. श्राशाधरजी कृत महा-अभिषेक परीक्षा' नामक ग्रन्थ लिखकर मुनि देवनन्दिको प्रदान पाठको ब्रह्म श्रु नमागर कृत टीका उन भट्टारक लक्ष्मीचन्दके किया । शिष्य ब्रह्म ज्ञानमागरको सं० १५५२ में लिखकर प्रदान की (४) संवत् १५३३ में धनश्रीने पद्मानन्द्याचार्यको 'जम्बूद्वीप

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