Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 275
________________ ६.] अनेकान्त [वर्ष १३ तदनन्तर भ. ऋषभदेवने प्रजाको असि, मषि, तदनन्तर वे आहारके लिए निकले । परन्तु उस समयकृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पवृत्तिकी शिक्षा देकर के लोग मुनियोंको आहार देने की विधि नहीं जानते अपनी जीविका चलानेका मार्ग दिखाया और ग्राम- थे, अतः कोई उनके सामने रत्नोंका थाल भरकर पहुंनगरादिके रचनेका उपाय बताकर व्याघ्रादि हिंस्र चता, तो कोई अपनी सुन्दरी कन्या लेकर उपस्थित प्राणियोंसे आत्म-रक्षा करने और सर्दी-ार्मीकी बाधा होता। विधिपूर्वक आहार न मिलने के कारण ऋषभदूर करनेका मार्ग दिखाया। देव पूरे छह मास तक इधर-उधर परिभ्रमण करते भ० ऋषमदेवने ही सर्वप्रथम घड़ा बनानेकी विधि रहे और अन्त में हस्तिनापुर पहुंचे। उस समय वहांके बतलाई और कूप, बावड़ी आदि बनाने और उनसे राजा सोमप्रभ थे । उनके छोटे भाई श्रेयांस थे। पानी निकालकर पीनेका मार्ग बतलाया । इन सब उनका कई पूर्व भवों में भगवान से सम्बन्ध रहा है कारणोंसे भगवान् 'प्रजापति' कहलाये। और उन्होंने पूर्व भवमें भगवान के साथ किमी मुनिविक्रमकी दूसरी शताब्दीके महान् विद्वान स्वामी को आहार दान भी दिया था। भगवान के दर्शन करते समन्तभद्रने अपने प्रसिद्ध स्वयम्भूस्तोत्रम इन दोनों ही श्रेयांसको पूर्वभवकी सब बातें स्मरण हो आई बातोंको इस प्रकार चित्रित कर उनकी प्रामाणिकता और उन्होंने बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे भगवानको प्रकट की है पडिगाह करके इक्षुरसका आहार दिया । वह दिन 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविपुः वैशाखशुक्ला तृतीयाका था । भगवान्को पूरे एक वर्षके शशास कृप्यादिषु कर्मसु प्रजाः ॥२॥ पश्चात् श्राहार मिलनेके हर्ष में देवोंने पंचाश्चर्य 'मुमुचरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् किये श्रेयांसका जयघोष किया और 'तुम दान तीर्थके प्रभुःप्रवबाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ श्राद्य प्रवर्तक हो।' यह कहकर उनका अभिनन्दन संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस कर्म किया। इस प्रकार भगवानको आहार-दान देनेके मे-युगके प्रारम्भमें प्रजाकी सुव्यवस्था करनेके कारण योगसे यह तिथि अक्षय बन गई और तभीसे यह भऋषभदेव ब्रह्मा, विधाता, सृष्टा आदि अनेक 'अक्षयतृतीया' के नामसे प्रसिद्ध होकर मांगलिक पर्वके नामोंसे प्रसिद्ध हुए। रूपमें प्रचलित हुई छ। ब्राझीलिपि अक्षयवटभ० ऋषभदेवने सर्व प्रथम अपने भरत आदि भ० ऋषभदेव पूरे १००० वर्ष तक तपस्या करनेके पुत्रोंको पुरुषोंकी ७२ कलाओंमें पारंगत किया। ज्येष्ठ अनन्तर पुरिमतालपुर पहुंचे जो कि आज प्रयागके पुत्र भरत नाट्य-संगीत कलामें सबसे अधिक निपुण . नामसे प्रसिद्ध है। वहां पर नगरके समीपवर्ती शकट थे। आज भी नाल्यशास्त्रके श्राद्य प्रणेता भरत माने जाते हैं। भगवान्ने अपनी बड़ी पुत्रीको लिपिविद्या नामक उद्यानके वटवृक्षके नीचे वे ध्यान लगा कर अवस्थित हो गये और फाल्गुन कृष्णा एकादशीके अक्षर लिखनेकी कला-और छोटी सुन्दरी पुत्रीको दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वे अक्षय अनन्त अंक-विद्या सिखाई। ब्राह्मीके द्वारा प्रचलित लिपिका ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यके धारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी नामही'ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुआ। भारतकी लिपियों बन गये। भगवानको जिस वट वृक्षके नीचे केवलमें यह सबसे प्राचीन मानी जाती है और प्रणेताके रूपमें भगवान ऋषभदेवकी अमर स्मारक है। ज्ञान उत्पन्न हुआ, वह उसी दिनसे 'अक्षय वट' के नामसे संसारमें प्रसिद्ध हुआ। अक्षयतृतीयाएक लम्बे समय तक प्रजाका पालन कर ऋषभ राघशुक्लतृतीयायां दानमासीत्तदच्यम् । देव संसारसे विरक्त होकर दीक्षित हो गये और दीक्षा पर्वाक्षयतृतीयेति ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०॥ लेनेके साथ ही छह मासका उपवास स्वीकार किया। (त्रि. ल.श. पर्व सर्ग ३)

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