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काक-पिक-परीक्षा
(पं०हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) काक (कौमा) और पिक (कोयब) दोनों तिग्गतिके अपने प्रति सबके दिलमें घृणा पैदा कर देती है। इस पंख वाले प्राणी है, दोनों ही काले हैं और दोनोंका समय काककी कटुता और पिककी प्रियताका पता चलता माकार-प्रकार भी प्राया एकसा ही है। कहा जाता है है। तुलसीदास जीने बहतही ठीक कहा:कि दोनोंके अंडोंका रूप-रंग और प्राकार एक ही होता है कागा कासों खेत है,कोयल काको देत ।
और इसलिए काकी श्रमसे कोयनके अंडेको अपना अंडा तुलसी मीठे वचनसो. जग अपनो कर खेत ॥ समझ कर पालने लगती है। समय पर अंडा फूटता है इस विवेचनका सार यह है कि काक और पिकमें
और उसमेंसे पचा निकलता है, तो काकी उसे भी बोलीका एक मौखिक या स्वाभाविक अन्तर है, जो दोनों अपना बच्चा समझकर पालती-पोषती है और चुगा-चुगा- के भेदको स्पष्ट प्रगट करता है। इस अन्तरके अतिरिक्त कर उसे बड़ा करती है। धीरे-धीरे जब वह बोलने लायक दोनों में एक मौलिक अन्तर और है और वह यह कि हो जाता है, तो काक उसे अपनी बोखी सिखानेकी कौएकी नजर सदा मैले पदार्थ-विष्ठा, मांस, थूक आदि कोशिश करता है। पर कोयल तो वसन्त ऋतुके सिवाय पर रहेगी । उसे यदि एक मोर अथका ढेर दिखाई दे अन्य मौसममें प्रायः कुछ बोलती नहीं है, अतएव कौश्रा और दूसरी भोर विष्ठामें पदे भमके दाने तो यह जाकर उसके न बोलने पर मुभलाता है और बार-बार चोंचे विष्ठाके दानों पर ही चोंच मारेगा, माके ढेर पर नहीं। मार-मारकर उसे बुलानेका प्रयत्न करते हुए भी सफलता इसी प्रकार धी और नाकका मन एक साथ दिखाई देने नहीं पाता, तो पाचेको गूंगा समझकर अपने दिखमें पर भी वह नाके मन पर पहुँचेगा, घी पर नहीं। बहादुखी होता है। फिर भी वह हताश नहीं होता और कौएकी दृष्टि सदा अपवित्र गन्दी भोर मैली चीओं पर उसे बुलानेका प्रयत्न जारी रखता है। इतने में वसन्तका ही पड़ेगी। पर कोयलका स्वभाव ठीक इसके विल्कुल समय मा जातात, मात्रकी नव मंजरी खाकर उसका विपरीत होता है। वह कभी मैले और गन्दे पदार्थों को कंठ खुल जाता है। कौमा सदाकी भांति उसे अब भी खाना तो दूर रहा, उन पर नजर भी नहीं डालती, न 'कांव-कांव' का पाठ पढ़ाता है। पर वह कोयलका बच्चा कभी गंदे स्थानों पर ही बैठती है। जब भी बैठेगीअपने स्वभावके अनुसार 'कांव-कांव' न बोलकर 'कहू- वृक्षोंकी ऊँची शाखाओं पर ही बैठेगी और उनके नव, कह' बोलता है। कौमा यह सुनकर चकित होता है और कोमल पल्सवों और पुष्पोको ही खायगी। कास्की मनोयह बच्चा तो 'कपूत' निकला, ऐसा विचार कर उसका दृत्ति अस्थिर भोर एष्टि चंचल रहती है, पर कोयलकी परित्याग कर देता है।
मनोवृत्ति और दृष्टि स्थिर रहती है। इस प्रकार काक और कौएके द्वारा इतने लम्बे समय तक पाखे-पोषे जानेके कोयनमें खान-पान, बोली, मनोवृत्ति और रष्टि सम्बन्धी कारण कोयनको 'पर-मृत' भी कहते है।
तीन मौलिक अन्तर है। काक और कोयलकी समताको देखकर सहज ही शंका-तिर्यग्गतिका जीव तथा प्राकार-प्रकारकी प्रश्न उठता है कि फिर इन दोनोंमें क्या अन्तर है? एकसमता होने पर भी दोनों में उपयुक्त तीन मौलिक किसी संस्कृत कविके हृदयमें भी यह प्रश्न उठा और उस विषमता उत्पन होनेका क्या कारण है। यह समाधान भी मिजा:
समाधान-तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेका कारया मावाचार काकः कृष्णः पिकः कृष्याः, को भेदः पिक-काकयो। अर्थात् छल-कपटरूप प्रवृत्ति बतलाई गई है। जो जीव वसन्तकाले सम्प्राप्ते, काकः काकः पिक: पिकः॥ इस भवमें दूसरोंको धोखा देनेके लिए कहते कुछ और है,
अर्थात्-काक भी काला है और कोयल भी काली करते कुछ और है, तथा मनमें कुछ और ही रखते हैं, वे है, फिर काक और कोयनमें क्या भेद है। इस प्रश्नके भागामी भवमें तीर्यचोंमें उत्पम्न होते है। इस मागमउत्तरमें कवि कहता-बसम्वतुके माने पर इन दोनों नियमके अनुसार जब हम काक और पिकके पूर्वभवोंके का भेद दिखाई देता है, उस समय कोयनकी बोली तो कृत्यों पर विचार करते है,तो ज्ञात होता है कि उन दोनों बोगोंके मनको मोहित कर लेती है और कौएकी बोली के तिर्यंचोंमें उत्पन्न करानेका कारण मायाचार एकसा रहा