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१४४ ] -अनेकान्त
[ वर्षे १३ अर्थ :-जिन शासनविर्षे जिनेन्द्रदेव ऐसा कहा है
या प्राचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामीने पुण्य और धर्मके भेदको
इन गाथाओंमें अत्यन्त स्पष्टरूपसे व्यक्त किया है। श्री पं. जो पूजा भादिके विर्षे पर व्रतसहित होय सो तो पुण्य है।
जयचन्दजीने स्वयं 'लौकिकजन तथा अन्यमती' शब्दोंका बहरि मोहके शोभकरिरहित जो आत्माका परिणाम है सो
प्रयोग किया है और जो वाक्य श्रीकानजी स्वामीने लिखे
हैं, वे उनके नहीं अपितु श्री पं० जयचन्दजीके हैं। तो क्या मावार्थ :-(प. जयचंदजी द्वारा)
मुख्तार मा० की दृप्टिसे श्री पं० जयचन्दजी भी उन्हीं विशे"लौकिकजन तथा अन्यमती केई कहें हैं जो पूजा
षणों पात्र हैं जी श्री पण्डितजीने इन्ही शब्र्दोके कारण श्री श्रादिक शुभक्रिया तिनिविषै अर व्रत क्रिया सहित है कानजी स्वामीके लिए खुले दिलसे प्रयोग किये हैं। यदि सो जिनधर्म हे सो ऐसा नांही है। जिनमतमें जिन नही तो
जिन नहीं तो ऐसी भूलके लिए खेद प्रकट शीघ्र किया जाना भगवान ऐसा कहा है जो पूजादिक वि अर व्रत- बारा
चाहिए। सहित होय सो तो पुण्य है-तह पूजा अर आदि शब्द
श्री प्राचार्यकल्प ६० टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक करि भति वंदना वैयावृत्य आदिक लेना यह तो देवगुरु शास्त्र
ग्रन्थमें इसी विषयको अध्याय ७में स्थान-स्थान पर इतना के अर्थ होय है।बहरि उपवास श्रादिक व्रत है सो शुभक्रिया पलिया है कि प्रांताती
स्पष्ट किया है कि शंकाको गुंजाइश ही नहीं रह जाती। है । इनि मैं आत्माका राग सहित शुभ परिणाम है
निश्चयाभासी व्यवहाराभासी जैनोंके प्रकरणमें द्रव्यताकरि पुण्य-कर्म निपजै है ताते इनिपुण्य कहै हैं, हिंगोली प्रानव बंध. संवा.
एय कह ह, लिंगीकी प्रास्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्वकी याका फल स्वर्गादिक भोगकी प्राप्ति है। बहुरि मोहका
भूल बतलाते हुए इन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'भनि तो रागक्षोभ रहित आत्माके परिणाम लेने तहाँ मिथ्यात्व तो
रूप है-रागते बन्ध है, तात मातका कारण नाही' 'हिमाप्रतत्वार्थ श्रद्धान है बहुरि क्रोध-मान, अरति शोक भय, जुगुप्सा ये छह तो द्वेष प्रकृति है बहुरि माया, लोभ, हास्य,
मानना' 'प्रशस्तराग बंधका कारण है-हेय है-श्रद्धानविर्षे रति पुरुष स्त्री नपुसक ये तीन विकार ऐसे ७प्रकृति रागरूप हैं. जोमसोमोना
जो याको मोक्षमार्ग माने सो मिथ्यादृष्टि ही है।' 'संवरतत्व तिनिकै निमित्ततें आत्माका ज्ञान दर्शन स्वभाव विकार महित
विप अहिंसादि विर्षे पुण्याश्रव भाव तिनको संघर जाने है सो शोभरूप चलाचल व्याकुल होय है यात इनिका विकारनित
एक कारणते पुण्य बंध भी माने और संवर भी मान सो रहित होय तब शुद्ध दर्शन ज्ञान रूप निश्चल होय, सो
बन नाही । आत्माका धर्म है । इस धर्मत आत्माकै अागामी कर्मका मुनीश्वक मिश्रभार्वोका वर्णन करते हुए लिखा हैतो श्रास्रवरूकि सवर होय ह और पूर्व बंधे कर्म तिनिकी
"जे अंश वीतराग भए, तिनकरि संवर है हो–अर जे अश निर्जरा होय है-सम्पूर्ण निर्जरा होय तव मोक्ष होय है।
सराम रहे तिनकरि पुण्यबन्ध है एक प्रशस्तराग ही ते पुण्यातथा एक देश मोहके होभकी हानि होय है। ताते शुभ
स्रव भी मानना और संवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। परिणाम कू भी उपचार करि धर्म कहिए है पर जे शुभ परि
सम्यकदृष्टि अवशेष सरागताको हेय श्रद्ध है, मिथ्याष्टि णाम ही कू धर्म मानि सन्तुष्ट हैं तिनिकै धर्मकी प्राप्ति नाही
सरागभाव विषै संवरका भ्रमकरि प्रशस्तरागरूप कर्मनिको है, यह जिनमत का उपदेश ।
उपादय श्रद्ध है।" गाथा ८४ में कहा है कि 'शुभ क्रियारूप पुण्य → इसी प्रकरणमें द्रन्य लिंगीकी तत्वोंको भूल बावत् धर्मजाणि याका श्रद्धान ज्ञान आचरण करै है ताकै पुण्यकर्म- लिखते हैं-'बहुरि वह हिंसादि सावद्यत्याग को चारित्र माने का बंध होय है-ताकरि कर्मका भय रूप संवर निर्जरा मोक्ष हैं तहां महावतादि रूप शुभयोगको उपादेयपनकरि ग्रहण न होय ।
माने है सो तत्त्वार्थसूत्रविर्षे प्रास्त्रव पदार्थका निरूपण करते गथा ८५-८६ में कहा गया है कि 'प्रात्माका स्वभाव- महाबत अणुव्रत भी प्रास्रव रूप कहे हैं, ए उपादेय कैसे रूप धर्म है सो ही मोक्षका कारण है । आत्मिक धर्म धारणा होय-अर प्रामवतो बन्धका साधक है-चारित्र मोक्षका बिना सर्व प्रकारका पुण्य आचरण करै तो भी संसार ही में साधक है-ताते महावतादि रूप मानव भावनिके चारित्र
पनी संभवै नाही । सकल कषाय रहित जो उदासीन भाव