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का कारण
नग्नताका स्थान (पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य बीना )
उद्देश्यसे ही साधुमार्गका अवलंबन लिया करते हैं । जैन एक लेख "दिगम्बर जैन साधुनोंका नग्नत्व" शीर्षक
- संस्कृतिमें मुख्यतः मुक्रि प्राप्त करनेके उद्देश्यसे ही साधुसे जैन जगत ( वर्धा के फरवरी १९५५के अंकमें प्रकाशित
मार्ग अवलंबन की बात कही गयी है। हुया है। लेख मूलतः गुजराती भाषाका था और "प्रबुद्ध
"जीवका शरीरसे सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाना" जीवन" श्वे. गुजराती पत्रमें प्रकाशित हुआ था। लेखके
ख मुकि कहलानी है परन्तु यह दि. जैन संस्कृतिक अभिप्रायालेखक "प्रबुद्ध जीवन' के सम्पादक श्री परमानन्द कुंवरजी
नुसार उसी मनुष्यको प्राप्त होती है जिस मनुष्यमें अपने कापड़िया है नथा जैन जगत बाला लेख उसी लेखका श्री
वर्तमान जीवनकी सुरक्षाका आधारभूत शरीरकी स्थिरताभंवरलाल सिंघो द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है।
के लिये भोजन, वस्त्र, औषधि श्रादि साधनोंकी आवजंग जगतक पपादक भाई जमनालाल जैनने लेखकका
श्यकता शेष नहीं रह जाती है और ऐसे मनुष्यको साधुनोंजो परिचय संपादकीय नाटमें दिया है उसे ठीक मानते हुए
का चरमभेद स्नातक (निष्णात् ) या जीवन्मुक्त नामसे
पुकारा जाता है। भी हम इतना कहना चाहेंगे कि लेखकने दिगम्बर जैन माधुनों के नग्नत्व पर विचार करनेक प्रसंगसे माधुन्चमें से साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय क्यों ? नग्नता की प्रनिष्ठाको समाप्त करनेका जो प्रयन्न किया है
मामान्य रूपसे जैन सस्कृतिकी मान्यता यह है कि उसे उचित नहीं कहा जा सकता है।
प्रत्येक शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक जीवका अस्तित्व इस विषयमें पहली बात तो यह है कि लेग्यकने अपने रहता है। परन्तु वह शरीरके साथ इतना धुला-मिला है कि लेखमें मानवीय विकासक्रमका जो ग्वाम्बा खींचा है उसे बुद्धि
शरीरके रूपमें ही उसका अस्तित्व समझमें आता है और का निष्कर्ष ता माना जा सकता है परंतु उसकी वास्तविकता जीवके अन्दर जो जान करनेकी शकि मानी
भी निर्विवाद नहीं कही जा सकती है।
शरीरका अंगभून इन्दियोंके सहयोगके बिना पंगु बनी रहती दूसरी बात यह है कि मभ्यताक विषयमें जो कुछ लेख
है, इतना ही नहीं, जीव शरीरके इतना अधीन हो रहा है में लिखा गया है उसमें लेखन कवल भौतिकवादका ही कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरता महाग लिया है जबकि मापुत्वकी श्राधारशिला विशुद्ध पर ही अवलंबित रहती है । जीवकी शरीरावलंबनताका यह अध्यात्मवाद है अतः भौनिक पदकी सभ्यताके साथ अध्यात्म- भी एक विचित्र फिर भी तथ्यपूर्ण अनुभव है कि जब शरीरवादमें ममपित नग्नताका यदि भेल न हो, तो इसमे आश्चर्य
में शिथिलता आदि किमी किम्मक विकार पैदा हो जाते हैं नहीं करना चाहिये !
तो जीवको क्लेशका अनुभव होने लगता है और जब उन नामरी बात यह है कि बदलती हुई शारीरिक परि- विकारोंको नष्ट करनेके लिये अनुकूल भोजन प्रादिका महारा स्थितियां हमें नग्नताम विमुम्ब ना कर सकती हैं परन्तु सिर्फ ले लिया जाना है तो उनका नाश हो जाने पर जीवको इसी आधार पर हमारा नाधुन्वमें से नग्नताके स्थानको
सुखानुभव होने लगता है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि भोजसमाप्त करनका प्रयन्न मही नहीं हो सकता है।
नादि पदार्थ शरीर पर ही अपना प्रभाव डालते हैं परन्तु साधुत्वका उद्देश्य
शरीरके माथ अनन्यमयी पराधीनताके कारण सुग्वका अनुप्रायः सभी संस्कृतियों में मानववर्गको दो भागों में भोला जीव होता है। बांटा गया है-एक तो जनमाधारण का वर्ग गृहस्थवर्ग और दिगम्बर जैन संस्कृतिकी यह मान्यता है कि जीव जिस दूसरा माधुवर्ग । जहां जनमाधारणका उद्देश्य केवल सुख- शरीरके साथ अनन्य मय हो रहा है उसकी स्वास्थ्यमय पूर्वक जीवन यापन करनेका होता है वहां साधु का उद्देश्य स्थिरताके लिये जब तक भोजन, वस्त्र, औषधि प्रादिकी। या तो जनसाधारणको जीवनके कर्तव्य मार्गका उपदेश देने आवश्यकता बनी रहती है तब तक उस जीवका मक होन का होता है अथवा बहुतमे मनुष्य मुक्ति प्राप्त करनेके असभव है और यही एक मबब है कि दि. जैन संस्कृति