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अनेकान्त
विर्ष १३ भगवान महावीरने अपने ३० वर्षके लगभग अर्थात् इस पद्यमें जिम शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' कहा गया है २६ वर्ष ५ महीने और २० दिनके केवली जीवनमें काशी, वह मंसारके समस्त प्राणियोंको मंसार, ममद्रस तारनेके लिये कौशल, पांचाल, मगध, बिहार, राजगृह, मथुरा और अंग, घाट अथवा मार्गस्वरूप है, उसका श्राश्रय लेकर सभी जीव बंग कलिंगादि विविध देशों और नगरों में विहारकर जीवोंको श्राम विकाम कर सकते हैं। वह सब सबके उदय, अभ्युदय कल्याणकारी उपदेश दिया। उनको अन्धश्रद्धाको हटाकर उत्कर्ष एवं उन्नतिमें अथवा अपनी आत्माके पूर्णविकासमें समीचीन बनाया। दया, दम, त्याग और ममाधिका स्वरूप महायक है । पर्वोदय नीर्थ में तीन शब्द है मर्व उदय और बताते हुए यज्ञादि कांडोंमें होने वाली भारी हिमाको विनष्ट तीर्थ । पशब्द सर्वनाम है वह सभी प्राणियोंका वाचक है, किया और इस तरह बिल बिलाट करते हुए पशुकुलको उदयका अर्थ कल्याण, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति और अभय दान मिला। जनसमूहको अपनी भूलें मालूम हुई तीर्थ शब्द संपार समुद्रस तरनक उपाय स्वरूप जहाज, घाट
और वे मत्पथके अनुगामो हुए। घृणा पापसे करना चाहिये अथवा मार्ग श्रादि अर्थों में व्यवहृत होना है। इससे इसका पापीसे नहीं, उसपर तो दया भाव रग्वकर उसकी भूल सुझा मामान्य अर्थ यह है कि जो शासन संसारके सभी प्राणियोंक कर प्रेमभावसे उसके उत्थान करनेका यत्न करना चाहिये। उन्कर्षमें सहायक है, उसके विकास अथवा उन्नतिका कारण शूदों और स्त्रियों को अपनी ये ग्यतानुसार आन्म-माधनका है वह शामन पर्वोदय 'तीर्थ' कहलाता है। यह तीर्थ सामाअधिकार मिला । महावीग्ने अपने संघमें स्त्रियों को मबम न्य-विशेष, विधि-निषेध और एक अनेक श्रादि विविध धर्मापहले दीक्षित किया और चन्दना उन सब प्रायिकाओंकी को लिए हुए है, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे व्यवस्थित है, गणिनी (मुख्य) थी। भगवान महावीरके शासनको महत्ताका पर्वदुःखोंका विनाशक है और म्वयं अविनाशी है। इपसे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समयके बडे २ इसके मिवाय, जो शामन वस्नुक विविध धर्मोमें पारस्परिक प्रधान राजा और युवराज अपने २ राज्य वैभवको जीर्ण तृणके अपेक्षाको नही मानता, उसमें दूसरे धर्मोका अस्तित्व नहीं समान छोड़कर महावीरके मंघमें दीक्षित होकर ऋषिगिरि बनता, अतः वह सब धर्मोस शून्य होता है। उसके द्वारा पर कठोर तपश्चर्या द्वारा प्राम-पाधना कर निर्वाणको पदार्थ व्यवस्था कभी ठीक नहीं हो सकती | वस्तुतन्वकी पधारे। जिनमें राजा चेटक, जीवंधर, वारिषेण और अभय. कान्त कल्पना म्ब-परके वैरका कारण है, उससे न अपना ही कुमारादिका नाम उल्लेखनीय है।
हित होता है और न दृसरका ही हो सकता है, वहतो सर्वथा इस तरह भगवान महावीरने अपने विहार एवं उपदेश एकान्नके आग्रहमें अनुरक्र हुश्रा वस्तुतत्वसे दूर रहता है । द्वारा जगतका कल्याण करते हुए कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी इमीसे पर्वथा एकान्त शामन 'मर्वोदयती नहीं कहला रात्रिके अन्तिम प्रहरमें पात्रासे परिनिर्वाण प्राप्त किया। पकत। अथवा जिस शासनमें पर्वथा एकान्तोंके विषयवीरशासन और हमारा कर्तव्य
प्रवादाको पचानकी शक्रि-क्षमता नहीं है और न जो विक्रमकी दूसरी शताब्दीक प्राचार्य समन्तभदने भग
उनका परस्परमें समन्वय ही कर सकता है वह शामन
कदाचित भी 'पर्वोदय' शब्दका वाच्य नही हो सकता है। वान महावीरके शासनको उनके द्वारा प्रचारित या प्रसारित
जो धर्म या शामन म्याद्वाद के ममुन्नत सिद्धान्तसे अलंकृत धर्मको निम्न पद्यमें सर्वोदय तीर्थ बतलाया है
है, जिसमें ममता और उदारनाका सुधारम भरा हुआ है, सर्वान्तवत्तदगुणमुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यंच मिथोऽनपेक्षम
म जो स्वप्नमें भी किमी प्राणीका अकल्याण नहीं चाहतासर्वापदामंतकरं निरन्नं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।
चाहे वह किमी नीची से नीची पर्यायमें ही क्यों न हो, जो xपच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्य किरह चोमिए । अहिमा अथवा दयासे प्रोत-प्रोत है जिसके प्राचार-व्यवहारमें मादीप रत्तीए संसरय छत्तु णित्वाश्रो ॥३१॥
दूसरोंको दुःखोन्पादनकी अभिलाषारूप अमंत्री-भावनाका -जयधवला भा० १ पृ.८१ प्रवेश भी न हो, पंच इंद्रियोंक दमन अथवा जीतनके लिये तीन पावाओंका उल्लेख देखने में आना है उनमेंसे यह जिसमें संयमका विधान किया गया हो, जिसमें प्रेम और पावामगधमें थी । यह विहार नगरसे तीन कोस दक्षिण में है, वात्सल्यकी शिक्षा दी जाती हो, जो मानवताका सच्चा हामी और वर्तमानमें जैनियोंकी तीर्थ भूमि कहलाती है। हो, अपने विपचियोंके प्रति भी जिसमें राग और द्वेषकी