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किरण ५] श्रीहीराचन्द बोहराका नम्र निवेदन
[१४१ के भीतर इस ढंगस उद्धत किया गया है जिससे यह है कि शुभभार जैनधर्म या जिनशासनका कोई अंग नहीं, मालूम होता है कि वह उन गाथाका पूरा भावार्थ है - उसमें इस माधारण पाठक भी सहज ही समझ सकते हैं। कुछ घटा-बड़ी नहीं हुई अथवा नहीं की गई है। परन्तु इसके मिवा पं० जयचन्दजी ने उक्त भावार्थमें यह कहीं जाँचसे वस्तु-स्थिति कुछ दूसरी ही जान पड़ी। उदृत भी नहीं लिम्बा और न उनके किसी वाक्यसे यह फलित भावार्थका प्रारम्भ निम्न शब्दोंमें होता है
होता है कि "जो जीव पू गदिके शुभरागको धर्म मानते हैं "लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहें है जो पूजा आदिक
उन्हें "लौकिकजन" और "अन्यमती" कहा है।" लौकिकशुभ क्रिया तिनिविर्ष अर व्रतक्रियासहित है सो जिनधर्म है जन आर अन्यमताक इस लक्षणका याद काइ भावाथक सो ऐसा नाही है । जिनमतमें जिनभगवान ऐसा कहा है जो उक्र प्रारम्भिक शब्दां परसे फलित करने लगे तो वह उसकी पूजादिक वि अरव्रत सहित होय सो तो पुण्य है।"
कारी नासमझीका ही द्योतक होगा क्योंकि यहाँ 'लौकिक
जन' तथा "अन्यमती" ये दोनों पद प्रथम तो लच्यरूपमें __इस अंश पर दृष्टि डालते ही मुझे यहाँ धर्मका 'जिन'
प्रयुक्र नहीं हुए हैं दूसरे इनके साथ 'केई' विशेषण लगा विशेषण अन्यमतीका कथन होनसे कुछ खटका तथा असंगत
हा है जिसके स्थान पर कानजी स्वामीके वाक्यमें 'कोई कोई' जान पड़ा, और इसलिये मैंने इस टीकाग्रन्थको प्राचीन प्रति
विशेषणका प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ है कि कुछ को देखना चाहा । खोज करते समय दैवयोगसे दहलीके नये मन्दिरमें एक अति सुन्दर प्राचीन प्रति मिल गई जा
थोड़े लोकिकजन तथा अन्यमती ऐसा कहते हैं-सब नहीं टीका निर्माणसे सवा दो वर्षवाद (सं० १९६६ पौष वदी
कहना तब जो नहीं कहने उनपर वह लक्षण उनके लौकिक २ को) लिखकर समाप्त हुई है। इस टीका-प्रतिसे बहरा
जन तथा अन्यमती होते हुए भी कैमे घटित हो सकता है ? जीक उद्धरणका मिलान करते समय स्पप्ट मालूम हो गया कि
नहीं हो सकना, और इस लिए कानजीस्वामीका उक वहां धर्मके साथ 'जिन' या कोई दूसरा विशेषण लगा हुआ
लक्षण अव्याप्ति दोष दूषित ठहरता है और चूंकि उसको नहीं है। साथ ही यह भी पता चला कि मोह-क्षोभसे
गति उन महान पुरुषों तक भी पाई जाती है जिन्होंने सरागरहित आत्माके निज परिणामको धर्म बतलाते हुए भावार्थका
चारित्र तथा शुभभावोंको भी जैनधर्म तथा जिनशासनका जो अन्तिम भाग "तथा एकदेश मोहक क्षोभकी हानि होय
अंग बतलाया है और जो न तो लौकिकजन है और न है तातें शुभ परिणामहूँ भी उपचारसे धर्म कहिये है" इस
अन्यमती, इसलिए उन लक्षण प्रतिव्याप्तिके कलंकसे भी वाक्यमे प्रारम्भ होना है उसके पूर्व में निम्न दो वाक्य छट गये
कलंकित है? माथ ही उसमें 'धर्म स्थान पर 'जनधर्म'
का गलन प्रयोग किया गया है । अतः उक 'भावर्थ' में 'लौकिअथवा छोड दिए गये हैं
जन' तथा अन्यमती' शब्दोंके प्रयोगमात्रसे यह नहीं कहा ___"ऐसे धर्मका स्वरूप का है । अर शुभ परिणाम होय
जा सकता कि "जो वाक्य श्रीकानजी स्वामाने लखे हैं वे तब या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है।"
इनके नहीं अपितु श्री पं० जयचंदजीके हैं।" श्रीवोहराजीने इस भावार्थमें पं० जयचन्दजीने दो दृष्टियोंसे धर्मकी यह अन्यथा वाक्य विग्वकर जो कानजी स्वामीकी वकालत बातको रक्खा है-एक कुछ लीकिकजनों तथा अन्यमतियों करनी चाही है और उन्हें गुरुतर आरोपसे मुक्त करनेकी चेष्टा के कथनको दृष्टिस और दूसरी जिनमत (जैनशामन ) की का है वह वकालत की अति है और उनसे विचारकोंको अनेकांतदृष्टिसे। अनेकान्तदृष्टिसे धर्म निश्चय और व्यवहार शोना नहीं देती। ऐसी स्थितिमें उक वाक्पके अनन्तर मेरे दोनों रूपमें स्थित है। व्यवहारके बिना निश्चयधर्म बन नहीं ऊपर जो निम्न शब्दोंकी कृपावृष्टि की गई है उनका प्राभार सकता, इसी बातको पं० जयचन्दजी ने “अर शुभ परिणाम किन शब्दों में व्यक्र करूं यह मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता(भाव) होय तो या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है" इन विज्ञ पाठक तथा स्वयं बोहराजी इस विषय में मेरी असमर्थता शब्दोंके द्वारा व्यक्त किया है। जब शुभ भावके बिना शुद्ध- को अनुभवकर पकेंगे, ऐमी श्राशा है। वे शब्द इस प्रकार हैंभावरूप निश्चयधर्मकी प्राप्तिका अवसर ही प्राप्त नहीं हो . "तो क्या मुख्तार सा. की दृष्टिमें श्री पं० जयचन्द्रजी सकता तब धर्मकी देशनामें शुभभावोंको जिनशासनसे भी उन्हीं विशेषणोंके पात्र हैं जो पण्डितजीने इन्हीं शब्दोंके अलग कैसे किया जा सकता है और कैसे यह कहा जा सकता कारण श्रीकानजी स्वामीके लिये खुले दिवसे प्रयोग किये