Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 258
________________ श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ न है" इन शब्दों-हारानी एकत्व प्रतिपादन मेरने 'श्री पं० मुना (जुगलकिशोर मुख्तार) 'समयसारकी १५ वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी' शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है।' इन शब्दों-द्वारा दोनोंका नामक मेरे लेखके तृतीय भागको लेकर बा० हीराचन्दजी एकत्व प्रतिपादन कर रहे हैं। शुद्धात्मा जिनशासनका एक बोहरा बी. ए. विशारद अजमेरने 'श्री पं० मुख्तार सा. विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन अथवा समप्र जिनसे नम्र निवेदन' नामका एक लेख अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ शासन नहीं है। जिनशासनके और भी अनेकानेक विषय हैं। भेजा है, जो उनको इच्छानुसार 'अविकल रूपसे इसी अशुद्धास्मा भी उमका विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्राकाश किरणमें अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। लेखपरसे और काल नामके शेप पाँच द्रव्य भी उसके अन्तर्गत है। ऐसा मालूम होता है कि बोहराजीने मेर पिछले दो लेखों- वह सप्ततत्वों, नवपदार्थों, चौदह गुणस्थानों चतुर्दशादि लेखके पूर्ववर्ती दो भागों को नहीं देखा या पूरा नहीं जीवममामों. षट्पर्याप्तियों, दस प्राणों, चार संज्ञाओं चौदह देखा, देखा होता तो वे मेरे ममूचे लेखकी दृष्टिको अनुभव मार्गणाओं, विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा करते और तब उन्हें इस लेखक लिखनेकी ज़रूरत ही पैदा प्रमाणोंकी भागे चर्चाओं एव प्ररूपणाओंको आत्मसात् किये न होती । मेरा समग्र लेख प्रायः जिनशासनके स्वरूप-विषयक अथवा अपने अंक (गोद) में लिए हुए स्थित है। साथ ही विचारसे सम्बन्ध रखता है और कानजी स्वामीके 'जिन- मोक्षमागकी देशना करता हुआ रत्नत्रयादि धर्मविधानों, शामन' शीर्षक प्रवचन-लेखको लेकर लिया गया है, जो कुमार्गमथनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर है। 'शात्मधर्म के अतिरिक्र अनेकान्त' के गत वर्षकी किरण संक्षेपमें जिनशासन जिनवाणीका रूप है, जिसके द्वादश अंग ६ में भी प्रकाशित हुआ है। जिनशासन' को जिनवाणीकी और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए प्रसिद्ध है।" तरह जिनप्रवचन, जिनागम-शास्त्र, जिनमत, जिनदर्शन, इस कथनकी पुष्टिमें ममयसारकी जो गाथाएँ उद्धत को जिनतीर्थ, जिनधर्म और जिनोपदेश भी कहा जाता है- जा चुकी हैं उनके नम्बर हैं-४६, ४८, १६, १६, १०, जैनशा-नन, जैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके नामान्तर हैं. ६७ ७०, १०७, १४१, १६१ १६२, १६३, १६१, जिनका प्रयोग स्वामीजीने अपने प्रवचन-लेखमें जिनशासनां ११८, २५१. २६२, २७३. ३५३, ४१४ । इन गाथाश्रोंको स्थान पर उम्पी तरह किया है जिस तरह कि 'जिनवाणी' उद्धृत करनेके बाद प्रथम लेखमें लिखा थाऔर 'भगवानकी बागी' जैसे शब्दोंका किया है। इससे जिन "इन पब उद्धरणोंसे तथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने अपनेप्रवभगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो कुछ कहा है और जो चनमाग्में जिनशामनके साररूपमें जिन जिन बातोंका उल्लेख तदनुकूल बने हुए सूत्रों-शास्त्रोंमें निबद्ध है वह सब जिन अथवा संसूचन किया है उन सबको देखनेसे यह बात शासनका- अंग है, इसे खूब ध्यानमें रखना चाहिये।" ऐसी बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि "एकमात्र शुद्धामा जिनशासन स्पष्ट सूचना भी मेरी प्रोग्से प्रथम लेखमें की जा चुकी है, नहीं है। जिनशासन निश्चय और व्यवहार दोनों नयों तथा जो अनेकान्त के गत वर्षको उसी छटी किरणमें प्रकाशित हुश्रा उपनयोंके कथनको साथ-साथ लिए हुए ज्ञान, ज्ञेय और है। और इस सूचनाके अनन्तर श्री कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत चारित्ररूप सारे अर्थममूहको उसकी सब अवस्थाओं सहित समयसारके शब्दों में यह भी बतलाया जा चुका है कि 'एकमात्र अपना विषय किये हुए है।" शवात्मा जिनशासन नहीं है, जैसा कि कानजी स्वामी "जो माथ ही यह भी बतलाया था कि "यदि शुद्ध आत्माको अविकल रूपसे प्रकाशित करनेमें बोहराजीके लेखमें कितनी ही जिनशासन कहा जाय तो शुद्धात्माके जो पांच विशेषण ही गलत उल्लेवादिके रूपमें ऐसी मोटी भूलें स्थान पा गई प्रबद्धस्पृष्ट, अमन्य, नियत, अविशेष कौर असंयुक्त कहे जाते हैं जिन्हें अन्यथा (सम्पादित होकर प्रकाशनकी दशामें) हैं वे जिनशासनको भी प्राप्त होंगे, और फिर यह स्पष्ट स्थान न मिलता; जैसे 'क्या शुभ भाव जैनधर्म नहीं किया गया था कि जिनशासन उक्र विशेषयोंके रूपमें परिइसके स्थान पर 'क्या शुभभाव धर्म नहीं? इसे मेरे लेखका लक्षित नहीं होता वे उसके साथ घटित नहीं होते अथवा शीर्षक बतलाना। संगत नहीं बैठते और इसलिए दोनोंकी एकता बन नहीं

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