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२०६ . इस्तिमागपुरके दोखेकी खुदाई में अनेक प्राचीन मिहीके कौरखान और पट्टी पाण्डवानके नामाले वहाँकी भूमि मशहूर बर्मन भादि पुरातत्वकी सामग्री उपलब्ध हुई है। पर उसमें थी। वर्तमान दि. जैन मन्दिर पट्टी कौरवानमें है। चमी जैन संस्कृतिके पुरातन अवशेष मिले यह कुछ हात हस्तिगागपुरकी यात्राओंमें उस टीले पर जिन मन्दिर नहीं होता । हो सकता है कि उस टीलेमें और उसके प्रास: बनवाने की अनेक बार चर्चा चली; परन्तु अभी तक कोई पासको भूमिमें नीचे दबे हुए जैन संस्कृतिके पुराने अवशेष ऐसा सुअवसर प्राप्त नहीं दुचा था जिससे वहाँ मन्दिरका उपलब्ध हो जांय । क्योंकि श्वेताम्बरोंने , अपनी निसि निर्माण कार्य होने लगता । चूंकि पास-पासके गूजर लोग (निषचा) जिस टीले पर बनाई थी उसकी नीव खोदते इस बातके लिये राजी नहीं थे कि यहाँ जैन मन्दिर बने। समय उसमें संवत् १२२३ की एक अखण्डित खड़गासन यद्यपि जैनियोंका उनसे कोई विरोध भी नहीं था, फिर भी दिगम्बर प्रतिमा शान्तिनाथकी प्राप्त हुई थी। जो भाज वे मन्दिर बननेके विरोधी थे, इसीसे मन्दिर बननेकी चर्चा भी मुख्य मन्दिरके पीछे बरामदेके कमरेमें विराजमान है। उठकर रह जाती थी। पर कोई ऐसा.साहसी व्यक्ति सामने इससे स्पष्ट जाना जाता है कि यहाँ दिउम्बर जैन मन्दिर रहे नहीं पाता था जो उस पुनीत कार्य को सम्पन्न करादे। है। पर कब और कैसे विनष्ट हुए यह इस समय बतलाना संवत् १८१८ (सन् १८०१)में जेठ वदी चतुर्दशीके संभव नहीं है। पर इतमा अवश्य कहा जा सकता है कि दिन जैनी लोग पिछले वर्षोंकी तरह यात्राको बाए थे। वहजैन लोग प्राचीनकालसे इस नगरको अपना तीर्थ मानने
| ताथ मजन सूमासे एक सामयाना लेजाकर उसी टीले पर लगाया गया पाए हैं और उसको पूजा बंदना करनेके लिए समय समय
और निसि यात्राके बाद पंचायत शुरू हुई। पंचायत में पर पाते रहे हैं और अब भी पाते हैं।
मन्दिर बनवानेकी बात भी उठाई गई, और कहा गया कि मालूम होता है गंगानदीके पूरके कारण इस नगरका प्रति वर्ष पंचायतमें यह मसला सामने जब यहाँ पाते हैं विनाश हुमा है। इसीसे यह विशाल नगर अब खण्डहरके ध्यानमें पाता है परन्तु खेद है कि हम अब तक उसे कार्यमें रूपमें विद्यमान है। परन्तु जैन यात्रियोंको यहाँ ठहरने
परिणत नहीं कर सके। बहुत विचार-विनिमयके बाद दिल्ली मादिकी असुविधा होनेसे यात्रिगण सुवह बहसूमासे आते निवासी राजा हरसुखरायजीने सब पंचोंके समक्ष यह थे और शामको वापिस चले जाते थे। उस समय कोई
प्रस्ताव रक्खा कि यहाँ मन्दिर जरूर बनना चाहिए और जैन मन्दिर नहीं था और न ठहरनेके लिए जैन धर्मशाला
उस मन्दिरके निर्माणमें जिस कदर भी रुपया खर्च पड़े वह ही थी, इसीसे हस्तिनागपुरमें जेनमन्दिरके बनवानकी सब में मेजता रहेगा। पंचायतमें उस समय शाहपुर जिला पावश्यकता महसूस की जा रही थी। जहाँ प्राज मन्दिर बना हुमा है वहाँ एक ऊँचा टोला था, और यात्री जन® ला०हरसुखरायजी हिंसारके निवासी थे, इनके चार भाई वहसमासे पाकर निसिकी यात्रा कर इसी टीले पर एक और थे जिनका नाम तनसुखराय मोहनलाल आदि था। और सामियाना लगवा देते थे, और उसके नीचे पंचायत हुआ वे हिसारसे बादशाहकी प्रेरणा पर देहली पाए थे। बड़े ही करती थी। इस टीजे पर यात्री जन जेठ बदी के दिन धर्मात्मा और मिलनसार सज्जन थे। अप्रवाल वंशमें यहाँ एकत्रित होते थे। और पंचायतमें विविध प्रकारके समुत्पन्न हुए थे। शाही खजांची थे, और राजाके खिताब विचारोंका आदान-प्रदान होता था। और यहाँ मन्दिर अथवा उपाधिसे विभूषित थे। सरल स्वभावी और कर्तव्य बनानेकी चर्चा भी चलती थी पर कार्य रूपमें परिणत नहीं निष्ठ थे । इनके पुत्रका नाम सुगनचन्द था जो गुणी और हो पाती थी। पंचायतमें देहली, मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फर- तेजस्वी तथा काम काजमें चतुर व्यक्ति थे। इन पर लषमीकी नगर खतौली, शाहपुर और सहारनपुर तथा पास-पासके बड़ी कृपा थी, वैसे ही वह सच्चरित्र और प्रतिभा सम्पन्न ग्रामोंकी जनता सम्मिलित होती थी। और शामका भोजन थे। उनकी अनेक कोठियाँ थीं। जयपुर, अलवर, भरतपुर वहीं पर कर सब लोग वहसूमें चले जाते थे। मन्दिरके और आगरा । बा० हरसुखरायजीने देहली, हिंसार, पानीपत, दरवाजेके बाहर जो कुवा बना हुआ है वह कुयों पुराना ही करनाल, सुनपत, शाहदरा, सांगानेर और हस्तिनागपुर मादिमें है उसीका पानी पिया जाता था। हस्तिनागपुरका यह सब अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया था, उनमें लाखों इलाका वत्कालीन गूजर राजा नैनसिंहके प्राधीन था। पट्टी रुपया खर्च करने पर भी उन्होंने कहीं पर भी अपना नाम