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अनेकान्त
[वर्ष १३
साधु थे अथवा भट्टारक थे अथवा त्यागी श्रावक-ऐल्लक शान्तिनाथ वसदि नामक जिनालयको कारकलके साधार खुल्लक आदि थे। किन्तु इस शिलालेखमें दक्षिणात्य शैली- नरेश लोकनायरसके राज्यकालमें, सन् १३३४ ई. में, के अनुरूप ही संघ, अन्वयकी सूचना सहित प्रतिष्ठाकारक राजाको दो बहिनों द्वारा दान दिये जानेका उल्लेख एक प्राचार्योका नामोल्लेख हुआ है।
शिलालेखमें मिलता है। ( M. J.. p.361, S. I. 1. जिन धनकीर्ति और कुमुदचन्द्र नामक दो प्राचार्योका vii, 247, pp. 124-1253; 71 of 1901) लेखसे उल्लेख हुआ है उनमें भी परस्पर क्या सम्बन्ध था, यह .
यह पता नहीं चलता कि ये कुमुदचन्द्र तत्कालीन भट्टारक
थे और उन दानके समय विद्यमान थे अथवा उसके कुछ लेखके त्रुटित होनेके कारण जान नहीं पड़ता । प्राचार्य धनकीर्तिका नाम तो अपरिचित सा लगता है, किन्तु कुमुद
समय पूर्व ही हो चुके थे। चन्द्र नाम परिचित है। इस नामके कई प्राचार्योंके होनेके
ये पांचों ही कुमुदचन्द्र मूलसंघ कुन्दकुन्दान्त्रयके उल्लेख मिलते हैं।
प्राचार्य थे इनमेंसे प्रथम चारमें कोई भी दो या तीन तक
अभिन्न भी हो सकते हैं किन्तु मन् १२७४ ई० में बीरवर्मएक कुमुदचंद्र तो प्रसिद्ध कल्याणमन्दिर स्तोत्रके कर्ता
देव चन्देलेके राज्ान्तर्गत उत्तर भारतमें स्थित अजयगढ़में के रूपमें विख्यात हैं । ये दसवीं और तेरहवीं शताब्दीके
सुमतिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करानेवाले इनमेंसे मध्य ही किसी समय हुए प्रतीत होते हैं।
चौथे अथवा पाँचवें कुमुदचन्द्र ही हो सकते हैं। कारकलके दूसरे दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र वे हैं जो श्वेताम्बराचार्य
भट्ट रकके गुरु भानुकीर्ति भी कीर्तिनामांत थे अतः सम्भव हेमचन्द्र के समकालीन थे और जिन्होंने अन्हिलपुर पहनके
है धनकीर्ति इन कुमुदचन्द्र भट्टारकदेवके कोई गुरुभाई रहे सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिहका राज-सभाम जाकर हों। निर्ग्रन्थ मुनियोंकी अपेक्षा मवस्त्र भट्टारकोंका जो गृहश्वेताम्बराचार्योक साथ शास्त्रार्थ किया था कहा जाता है। स्थाचार्य जैसे होते थे और प्रतिष्ठा आदि कार्योमें अधिक किन्तु यह घटना १२वीं शताब्दीके मध्यके लगभग की है।
भाग लेते थे सुदूर प्रदेशोंमें गमनागमन भी अधिक सहज सम्भव है उन दोनों कुमुदचन्द्र अभिन्न हों।
था। किन्तु यदि वे मन् १३३४ में जीवित थे तो प्रस्तुन तीसरे कुमुदचन्द्र आचार्य माघनन्दि सिद्धान्तदेवके प्रतिष्ठाकार्यमें उनका योग देना असम्भव सा लगता है । गुरु थे। द्वार समुद्र के होयसल नरेश नरसिंह तृतीयके हल- इसके अतिरिक्त, माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य कुमुदचन्द्र बीड नामक स्थानसे प्राप्त सन् १२६५ ई. के बेन्नेगुड्डे पंडितका भारी विद्वान एवं वाप्रिय होनेके कारण सुदूर शिलालेख ( M.A.R. for 1911, p. 49, Mad. उत्तरमें विहार करना और प्रतिष्ठाकार्य सम्पादन करना भी J.np.84-85) के अनुसार उक्र होयसल नरेशने अपने नितान्त सम्भव प्रतीत होता है, विशेषकर स्वसमयकी दृष्टिगुरु माघनन्दी सिद्धान्तदेवको दान दिया था। ये प्राचार्य से वही एक ऐसे कुमुदचन्द्र है जो मन् १२.४ ई. में मलमंघ बलात्कारगणके थे और इनके गुरुका नाम कुमु- अवश्य ही विद्यमान रहे होंगे। देन्द योगी था। कुमुदेन्दु और कुमुदचन्द्र पर्यायवाची हैं, मलसंघ कन्दकन्दान्वयक अन्तर्गत नन्टिसंघ. बलात्कार
और इस प्रकार पर्यायवाची नामोंका एक ही गुरुके लिये गण, सरस्वतीगच्छके भट्टारकोंकी गहियोंका उज्जयनि, बहुधा उपयोग हुआ है।
मेलसा, ग्वालियर, बारा, कुण्डलपुर और स्वयं बुन्देलखण्डइन्हीं माधनम्दी सिद्धान्तदेवके प्रधान शिष्य भी एक के चन्देरी नामक स्थानमें भी इस कालमें स्थापित हो जाना कमदचन्द्र पंडित थे जो चतुर्विध ज्ञानके स्वामी और भारी पाया जाता है, किन्तु समस्त स्थानोंकी पट्टावलियोंमें १३वीं हामी एवं वाद-विजेता बताये गये हैं। (देखिये वही शि० शताब्दी ई० में और उसके आगे पीछे भी पर्याप्त समय लेख) ये चौथे कुमुदचन्द्र हैं।
तक कुमुदचन्द्र या घनकीर्ति नामके किसी गुरूका होना नहीं पांचवें कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव सम्भवतया कारकलके पाया जाता। भधारक थे। वे मूलसंघ कानूरगणके प्राचार्य थे और भानु- यदि किसी विद्वानको इस सम्बन्धमें कुछ विशेष जानकीर्ति मनधारीदेवके प्रधान शिष्य थे। इनके द्वारा निर्मित कारी हो तो प्रकाश डालनेकी कृपा करेंगे।