Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 238
________________ पोसहरास और भ० ज्ञानभूषण (परमानन्द जैन) इस ग्रन्थ का आदि अन भाग श्री क्षुल्लक मिद्धिमागर- और मूलसंघका विद्वान सूचित किया है। जीने मोजमाबाद (जयपुर) के शास्त्रभंडारसे भेजा है जिसके मूलसंघे महामाधुर्लचमीचन्द्रो यतीश्वरः। लिये मैं उनका आभारी हूँ। प्रन्थमें प्रत्येक अष्टमी और तस्य पट्टच वीरेन्दु विबुधो विश्ववंदितः ॥१॥ चतुर्दशीको उपवास करनेका उल्लेख किया गया है। तदन्वये दयाम्योधिनिभूषो गुणाकरः।। ग्रन्धका श्रादि अन्त भाग निम्न प्रकार हैं। चूंकि भुवनकीर्तिके शिष्य ज्ञानभूषणने वि० सं० १५६० आदि भाग में तत्त्वज्ञानतरंगिणी बनाकर समाप्त की है। इनके द्वारा सरमति चरण युगल प्रणमी सहित गुरूमनि श्राणु । प्रतिष्ठित मूर्तिलेखोंमें इनका समय वि० सं० १५३४ से बारह वरत महि सारवरत, पोसह वरत बखाणु ॥३॥ १५६० तक पाया जाता है। जिससे वे विक्रमकी १६ वीं अट्टमी चउटसनीसहित, नित पोसह लीजइ । शताब्दीके मध्यवर्ती विद्वान जान पड़ते हैं। किन्तु द्वितीय उत्तम मध्यम अधम मेद, तिहुविधि जाणिजइ ॥ २ ॥ ज्ञानभूषणका समय इसमें कुछ बादका है। क्योंकि भट्टारक अन्त भाग लक्ष्मीचन्द्रके गुरु मल्लिभूषणका समय सं० १५३० से वरइ रमणी मुकतीजस नाम, १५५० के लगभग है उससे कमसे कम ३० वर्षके बादका अनुपम सुख अनुभव इह ठाम | समय भ० ज्ञानभूषणका होना चाहिये। यद्यपि ३० वर्षका पुन रपि न प्रावह नेह वउ-फलु, यह समय दोनों विद्वानोंका अधिक नहीं है। अर्थात् द्वितीय जम गमइ ते नर पोसह कारन भावइ । ज्ञानभूषण सं० १५८०के बाद के विद्वान जानना चाहिये । साथ दोहा-राणी परिपोमहु धरहु, जे नर नारि सुजाण । ही जिन ग्रन्थोंमें उन्हें लचमीचन्द्र वीरचन्द्रका शिप्य सूचित श्रीज्ञानभूषण गुरु इम भणइ, ते नर करउ बम्वाण ॥ किया गया है वे पब रचनाएँ द्वितीय ज्ञानभूपणकी माननी इस प्रोपधगम कर्ना भ. ज्ञानभूपण हैं। ग्रन्थों में ज्ञान चाहिए। इन्होंने कुछ ग्रन्थोंकी टीकाएँ अपने प्रशिष्य और भूपण नामके दो विद्वान भट्टारकोंका उल्लेग्य मिलता है। भ० प्रभाचन्द्रक शिष्य भ० मुमतिकीर्तिके माथ भी बनाई जिनका समय, गुरु शिष्य परम्परा भी भिन्न-भिन्न है, जिस हैं। उदाहरणके लिये कम्मपयडी (कर्मकायड) टीका जिसे पर किसी विद्वानने अब तक कोई प्रकाश डाला ज्ञान नहीं जानभपण नामांकित भी किया गया है। सुमतिकीर्तिके होता। अभी तक ज्ञानभूपणक नामसं एक विद्वानका ही विद्वानका हा माथ बनाई गई है। उल्लंग्य बराबर देखनेमें पाता है। जैन ग्रन्थप्रशस्ति- इस सब विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानभूषण संग्रहकी प्रस्तावना लिखते समय मेरा ध्यान भी उस ओर नामके दोनों विद्वान उन दोनों परम्पराओंमें हुए हैं, जिनका नहीं गया. किन्तु अब उस पर दृष्टि जाते ही उन दोनोंकी समयादिक मब भिन्न है। इनमेंसे प्रथम ज्ञानभूषणकी निम्न पृथकताका श्राभास सहज ही हो गया। इन दोनों ज्ञान- कृतियोंका पता चला है जिनके नाम इस प्रकार हैंभूषणोंमस प्रथम ज्ञानाभूपण वे हैं जो भ० मकलकीर्तिके तत्त्वज्ञान तरंगिणी स्वो० टीका युक, २ आदिनाथ काग, पट्टधर शिप्य भुवनकीर्तिक शिष्य थे । और दूसरे ज्ञानभूषण ३ नेमिनिर्वाणकाव्य पंजिका, ४ परमार्थोपदेश, ५ सरस्वती वे हैं जो भ. देवेन्द्रकीर्तिकी परम्पराओं में होने वाले भट्टारक स्तवन, ६ श्रारम-सम्बोधन। लक्ष्मीचन्द्र के प्रशिष्य और वीरचन्द्र पट्टधर शिप्य थे। दूसरे ज्ञानभूपणकी निम्न रचनाएँ हैंयही कारण है कि प्रस्तुत ज्ञानभूषणने भ० लक्ष्मीचन्द्र और १ जीबंधरराम २ सिद्धान्तमारभाप्य ३ कम्मपयडी वीरचन्द्रका अपने टीका-ग्रन्थोंमें स्मरण किया है जैसा कि टीका ( कर्मकाण्ड टीका) जिनचन्द्र के सिद्धान्तसारभाप्यके मंगल पद्यसे स्पष्ट है:- इन तीन कृतियोंके अतिरिक्र प्रस्तुत 'पोसह रास' श्री सर्वज्ञं प्रणम्यादी बक्ष्मी-वीरेन्दुसवितम् । (प्रोपधराम) भी इन्हींको कूति जान पड़ती है। अन्य क्या भाप्यं सिद्धान्तसारस्य वच्ये ज्ञानसुभूपणम् ॥ ११॥ क्या रचनाएँ इन दोनों विद्वानों द्वारा यथा समय रची गई हैं वीरचन्द्र के शिष्य ज्ञानभूषणको कर्मकाण्ड (कर्म प्रकृति) उनकी खोज अन्य-भण्डारोंसे करनेकी जरूरत है। आशा है टीकाका अन्तिम प्रशस्तिमें सुमतिकीर्तिने बीरचन्द्रका अन्वयी विद्वद्गण इस ओर भी ध्यान देनेकी कृपा करेंगे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386