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पं. दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँ
(परमानन्द शास्त्री) दीपचन्दजी शाह विक्रमकी १८ वीं शताब्दीके प्रतिभा सिद्धान्त और तत्वचर्चासे जनसमूह बाजभी शून्य होता। उसे मम्पस विद्वान और कवि थे। उनकी परिणतिमें सरलता अपने धर्मका यथार्थ परिज्ञान भी नहीं हो पाता। इससे सबसे और व्यवहारमें भद्रता थी, उनका स्वभाव भोला था, परन्तु अधिक लाभ तो यह हुआ, कि जनशास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यात्म-चर्चामें वे अन्यन्त कुशल थे। उनकी प्रामा पठन-पाठन जो एक अर्सेसे रुकया गया था, पुनः चालू हो अध्यात्मरूप सुधामृतसे सराबोर रहती थी, वे श्रात्मानु- ___ गया। और आज जनशास्त्रोंके मर्मज जो विद्वान देखने में भूतिके पुजारी थे। उसी रसिक थे, और एकान्तमें उसीके आरहे है यह सब उमीका प्रतिफल है। इस पन्था श्रेय रसमें निमग्न होने की चेष्टा करते थे। वे अध्यात्मकी चर्चा जयपुरके उन विद्वानोंको प्राप्त है जिन्होंने अपनी निम्बार्थ. करते हुए उसी में ग्रान-प्रोन होकर अपनी सुध-बुध भूल जाते सेवा एवं कर्तव्यनिष्ठा द्वारा इस पल्लविन किया है। थे वे जनसम्पर्कमें कम पाते थे. परंतु उनका अधिकांश समय शाहजी की रचनाओका अध्ययन करनेसे स्पष्ट मालूम प्रारम-चिन्तन, आत्म-निरीक्षणा, अान्म-निन्दा, गहां तथा होता है कि प्रापर्क पावन हृदय में मंसारी जीवोंकी विपरीनाअपने अनुभवको कविता रूप परिणत करनेमें व्यतात होता भिनिवेश मय परिणनिको देखकर अत्यन्त दुश्व होता था। आपकी जाति खंडेलवाल, और गोत्र था कामली- था, और वे चाहने थे कि संसार सभी प्राणी-स्त्री-पुत्र-मित्र वाल। आप पहले सांगानेरक निवासी थे किन्तु पीछस धन-धान्यादि वाद्यपदार्थोंमें आत्म बुद्धि, न करें, उन्हें भ्रमजयपुरकी राजधानी अामेरमें पा बस थे। आपने अपनी वश अपने न मानें, उन्हें कर्मोदय प्राप्त समझ तथा उनमें कृतियों में इससे अधिक परिचय देने की कृपा नहीं की। अतः कन्वबुद्धिस ममुन्पन्न अहंकार-ममकार रूप परिणति न होने उनके जीवन-परिचय, माता-पिता नया गुरु परम्परीक सम्बन्धमें हैं। ऐसा करने से ही वे जीव अपने जीवनको आदर्श, प्रकाश डालगा संभव नहीं है। खोज करने पर भी उस मन्तोषी एवं मुखी बना सकते हैं। मुम्बका मार्ग परके सम्बन्धमें काई विशेष जानकारी नहीं मिली । पर इतना ग्रहणमें नहीं है किन्तु उनके त्यागमें अथवा उनसे उपेक्षा अवश्य ज्ञात होना है कि आपका वेष-भूषा और रहन-महन धारण करने में है । यही कारण है कि आपने अपनी प्राध्याअत्यन्त मादा था। श्राप तरह पंथक अनुयायी थे । यद्यपि मिक गद्य-पद्य-रचनाओं में भव्यजीवोको पर-पदार्थोम प्रान्मउस समय तरह और बीमपंथका उदय हो चुका था, परन्तु बुद्धि न करनेकी प्रेरणा की है और उससे होने वाले दुर्विपाकअभी उसमें क्लुपनाकी विशेष अभिवृद्धि नहीं हुई थी किन्तु को भी दिग्बलानेका प्रयत्न किया है। उनकी पी भावना माधारणमी बातों पर कभी कभी बींचतान हो जाया करती ही ग्रन्थ-चनाका कारण जान पड़ता है, इसीसे उन्होंने थी। परन्तु एक दृमके मध्यमें उतभेद मूलक दीवार जरूर अपने ग्रन्थोंमें जीवी उस भृलको मुधारनेकी वार वार बड़ी होगई थी।
प्रेरणा की है। पं. दीपचन्दजी शाहका उस अपर कोई ग्वाम लक्ष्य रचनाएँ और उनका परिचय नहीं था, उनका एक मात्र लक्ष्य सदष्टि बनना, स्व-स्वरूप- हम ममय आपकी गद्य-पद्य रूप निम्न रचना उपलब्ध को पिछान कर अनादिकालीन अपनी भूलको मेंटना था, है। अनुभवप्रकाश, चिदिलाम, प्राभावलोकन, परमात्मइसीसे वे उससे प्रायः उदासीन रहकर म्वानुभवको ओर पगण, उपदंशरन्नमाला, ज्ञानदर्पण, बरूपानन्द और विशेष लक्ष्य देते थे। परन्तु उस समय परम्परमें कलपना- मया टीका । अापकी ये मभी कृतियाँ आध्यात्मिक रमसे की गहरी पुट जम नहीं पाई थी। जैसी कि भविष्यमें
श्रोत-प्रोत हैं और उनमें जीवात्माको वस्तुनत्त्वका प्राध्यामिक
तीन तनातनी बढ़ी, उन पंथोंक व्यामोह वश अनेक कागा और
दृष्टिम बोध करानका ग्वामा प्रयत्न किया गया है । इन रचनासमस्याएँ वहां घटित हुई, जिनके कारण दोनोंको हानिक ओंमें ज्ञानदर्पण. म्वरूपानन्त, उपदशमिद्धान्त रत्नमाला इन सिवाय कोई लाभ नहीं हुआ। परन्तु इतना जरूर हुश्रा तीनोंको छोड़कर शेप सभी रचनाए हिंदी गयमें हैं जो 'ढारी कि भाहारकीय तानाशाहीके बावजूद भी तेरहपंथ विशेषरूपसे भापाको लिये हए हैं जैसा कि अनुभवप्रकाशक निम्न पाति पाता गया, और अनुयायियोंकी संख्या अभिवृद्धि ग्रंशसे प्रकट है:होती गई। यदि उस समय इस पंथका जन्म न होता तो "महामुनिजन निरन्तर स्वरूप सेवन करें हैं तातें अपना