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अनेकान्त
वर्ष १३
कहो कहा सिद्धभई, अब नैकहू निहारी निधिचेतना गुण अनंतके रस सबै अनुभौरसके मांहि । तुम्हारी है ॥४७॥
यार्ने अनुभवसारिखो और दूसरो नांहि ॥१२॥ इन पद्योंमें बनलाया गया है कि-'एक प्रान्मा ही कविवरने इन पद्योंमें कितना मार्मिक उपदेश दिया है, मंमारके पदार्थों में मारभूत है, वह अलख है, अरूपी, अज, इसे बतलानकी आवश्यकता नहीं, अध्यामरसके रसिक मुमुक्षुऔर अमित तेजवाला है। परन्तु इस जीवने कभी भी जन उमस भलीभांति परिचित है । इस तरह यह सारा ही उसकी संभाल नहीं की, अतएव परमें अपनी कल्पना कर ग्रंथ उपदेशात्मक अनेकभावपूर्ण सरम पद्योंसे श्रोत-प्रोत है। भव-वन भटकता रहा है। कर्मरूपी कल्लोलामें निश्शक
इम ग्रन्थका रमाम्पादन करते हुए यह पद पद पर अनुभव डालना हा पदपदमें रागी हुया है-कर्मोदयसे प्राप्त होता है कि कविकी श्रान्तरिकभावना कितनी विशुद्ध है शरीरों में प्रामक रहा है। यदि यह जीव अपने म्वरूपका और वह अात्मतत्वक अनुभवसं विहीन जीवोंको उसका भान करने लग जाय तो क्षणमात्रमें चिरकालको बड़ी भारी महज ही पथिक बनाने का प्रयत्न करती है। विपत्ति भी दूर हो सकती है। म्ब का अवलोकन करते ही
उपदेशरत्नमाला-इम ग्रन्थमें भी कविने सैद्धान्तिक अनादि सिद्ध प्रान्माका माक्षात अनुभव होने लगता है।
उपदशांको पद्योंमें अंकित कर जीवात्माको भववामकी परन्तु यह जीव अपनी भूलसे ही व्यवहारी हुआ है। हमने
कीचडस निकालनका प्रयत्न किया है, साथ ही, श्रान्मतत्वअपनी ज्ञायक (जाननकी) शक्रिको गुप्त कर अज्ञानावस्थाको
को परम्पनं उसकी प्रतीति करनेकी प्रेरणा की है। जान विस्तृत किया है। यह अपने चैतन्यम्वरूपको नहीं जानता
पडता है कविको जीवोंकी परपरिणतम होने वाली दुग्वदा किन्तु अन्यमें अन्यकी कल्पना करता रहता है। अनाव
अवस्थाका भान है, उन्हें परपरणनिमें निमग्न जीवोंकी खेद खिन्न होता हुआ भी अपनी रीतिको नहीं संभालता है।
दुखपरम्परा अमझ हो रही है इसी कारण उसक दर करने इस तरह करते हुए इस जीवको अनादिकाल व्यतीत हो
की बारम्बार चतावनी दी है-जीवात्माकी भूल सुझानेका गया परन्तु स्वामिलब्धिकी प्राप्ति नहीं हुई। कविवर कहते उगम किया है जैसा कि ग्रन्थक निम्नपद्यों से प्रकट हैहैं कि है अान्मन ! तू अब भी परपदार्थोमं श्रान्मन्वबुद्धिका परित्याग कर, अपने स्वरूपकी ओर दव, अवलोकन करत अतुल अविद्या वमि परे, धरैन श्रातमज्ञान। ही माक्षात चनाका पिड एक अखण्ड ज्ञान-दर्शन-स्वरूप पर परिणति में पगि रहे, कैस है निरवान ॥५॥ पारमाका अनुभव होगा वही तरी प्रात्म-निधि है।
मानि पर आपी प्रेम करत शरीरसती, कामिनी कनक कविन अनुभवकी महत्ताका गुणगान करते हुए बतलाया मांहिकर मोह भावना । लोकलाज लागि मूढ आपनी है कि-अनुभवरय रूपी छम्बरड धाराधर (मेघ) जहां जाना। अकाज करे. जानैं नहीं जे जे दुख परगति पावना । हो जाता है वहीं दुःवरूपी दावानल ग्चमात्र भी नहीं परिवार प्यार करि बांधैं भव-भार महा, बिनु ही विवेक रहता । वह कर्मनिवासरूपी भव-वाम-घटाको दूर करनेके लिए करें काल का गमावना। कहै गुरुज्ञान नावबैठ भवप्रचण्ड पवन है ऐसा मुनिजन कहते हैं। इस अनुभवरसके सिन्धतरि, शिवथान पाय सदा अचल रहावना ॥६॥ पीनेके बाद अन्य रसके पीनेकी कभी इच्छा भी नहीं होती। यहीरम जगमें मुग्यदाता है। यही श्रानन्दका स्थान है और
म्वरूपानन्द-इसमे अचल, अनुपम, अज, ज्ञानानन्द, मन्त पुरुषों के लिए अभिराम है, इसके धारक शाश्वतपद प्राप्त
श्रान्माके चितस्वरुपका अनुभव करनमें जो निर्विकल्प करते हैं, जैसा कि उनके निम्न पद्मस प्रकट है
श्रानन्द पाता है, उमीमें रत रहने, विकारी भावोंको छोड
कर निज स्वरूपमें स्थिर होनेकी प्रेरणा करते हुए उसका अनुभौ अखण्डरस धागधर जग्यौ जहां तहां,दुःखदावा
फल शिवपद बतलाया गया है। जैसा कि ग्रन्थक निम्न दोहे नल रंच न रहतु है। करमनिवास भववास-घटा भानवकों. परम प्रचण्ड पौन मुनिजन कहतु हैं । याको
से प्रकट हैरसपियें फिरि काहूकी न इच्छा होय, यह मुग्वदानी
अचल अखण्डित ज्ञानमय, आनन्दघन गुणधाम । सदा जगम महत हैं। यानंदको धाम अभिराम यह अनुभी ताको कीजिये, शिवपद ह अभिराम ||७६। संतनको याहीके धरैया पद सासतौ लहतु हैं ॥१२॥ अन्तिम ग्रन्थ एक सवैया' की विस्तृत टीका है। जिसमें