________________
जैन साहित्यका भाषा-विज्ञान-दृष्टिमं अध्ययन
(बाबू माईदयाल जैन बी. ए. (आनर्स), बी. टी.) प्राचीन साहित्यका अध्ययन भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे या प्राचार्यों और लेखकोंने गात न की हो इन भाषाओं में भिन्न-भिन्न बातोंकी जानकारीके लिये किया जाना है। भित्र-भिन्न संवतों में लिखित जैन शास्त्रांकी सख्या सहना है धार्मिक साहित्य बहुत करके धर्मनाभ या पुगय प्राप्ति या और वे भाषा विज्ञानियोंकी राह देख रहे है । यह दुर्भाग्यकी धर्मशान प्राप्तिके लिए पढ़ा जाता है। पर भिव-निय विषयोकं. बात है, कि भाषा विज्ञानियोंका ध्यान इस विपुल जनजानकार या विशेषज्ञ उसे अपने-अपने उपयोग या म्बोजोके माहिन्यकी ओर अभी नहीं गया। पर जब जैनोंका ही ध्यान लिए पढ़ते हैं। प्राचीन साहित्यके अध्ययनकी एक और इस ओर न हो, तब और किपीस शिकायत या गिला क्या ? दृष्टि या उपयोग भाषा-विज्ञानको दृष्टि है।
डा. ए. एन. उपाध्यायने एक स्थानपर ठीक हो यो नो प्राचीन या मध्यकालीन जैनमाहित्य अभी ठीक तौर लिखा है-'जैन ग्रन्थोंमें भाषा-विज्ञान सम्बन्धी उपलब्ध पर तथा पूरा प्रकाशित भी नहीं हुआ है, तब उसके भिन्न सामग्रीकी उपेक्षा करके राजस्थानी गुजराती और हिन्दी के दृष्टियोंसे अध्ययनका प्रश्न पैदा ही नहीं होता, पर मौजूदा विकासको रचना करना असम्भव है +।' साहित्यका अभी उपयोग नहीं हो रहा है। प्राचीन इनिहाय- भारतकी प्राचीन भाषाओं, आधुनिक आर्य-भाषाओं की जानकारीके लिए जैन साहित्यका कुछ उपयोग जैन-जेन तथा दक्षिणी भाषाओंमें जैन पारिभाषिक शब्द तथा अर्ध विद्वानों द्वारा किया जाने लगा है, पर दूसरी दृष्टियोंसे पारिभाषिक शब्द सहस्रोंकी संख्यामे हैं, सामान्य शब्दोंका उसका उपयोग होता दिग्वाई नहीं दे रहा है। भाषा-विज्ञान- प्रयोगभी इन ग्रन्थों में है ही। यहाँ एक बात और उल्लेबकी दृष्टिसे तो जैनसाहित्यका अध्ययन अभी जैन या अजैन नीय है । वह यह कि जबकि सब जैन तीर्थकर उत्तर भारतमें विद्वानोंके द्वारा प्रारम्भ भी नहीं हुआ है। यह बहुत ही हुए, तब जैन समाजके विशेषकर प्रसिद्ध दिगम्बर जैन खेदकी बात है।
प्राचार्य दक्षिणमें हुए है। इस उल्लेग्यसे यह बात इस लेखमें जैन साहित्यके भाषा-विज्ञानकी दृष्टिसे बतानी है कि जबकि प्राकृत या जैन संस्कृत पारिभाषिक शब्द अध्ययनकी आवश्यकता, महत्व, कार्य विधि और ढंग ग्रादि- जैन श्राचार्योंके द्वारा दक्षिणकी ओर गये होंगे, तब दक्षिणी के बारे में संक्षेपसे कुछ बताया जायगा।
भाषाओंके शब्द भी उनके द्वारा उनकी ओर अवश्य पाये भाषा विज्ञानका अभिप्राय भाषाका विश्लेषण करके
होंगे। पर शब्दोंके इस विनिमयकी ओर आजतक किसने उपका दिग्दर्शन कराना है। उसके मुख्य अग निरुक्ति थाशन्न
ध्यान दिया है ? उदाहरण के तौरपर यहाँ यह बताना अनुचित व्युत्पति, वाक्य विज्ञान, पद-विज्ञान, ध्वनि विज्ञान और न होगा कि फारसी भाषामें एक तिहाई अरबी भाषाक शब्द अर्थ-विज्ञान हैं। यों तो प्राचीनकाल में भी भाषाका अध्ययन तुकाम मा उनका बालबाना है। एस हा पिछल छ: होता था, पर उसका वैज्ञानिक ढंगसे अध्ययन अठारवीं
मात सौ वर्षोमें अरबी फ़ारसी और हिन्दीके सहस्रों शब्द शताब्दिमें हुआ और तबसे बढते-बढ़ते यह विषय इतना
दक्षिणकी भाषायों तामिल, नेलग, कन्नड़ और मलयालममें बढ़ गया है, कि अब इसने भाषाओंके तुलनात्मक अध्ययनका
पहुँच गये हैं और दक्षिणकी गह मराठी आदिके माध्यमसे विशाल क्षेत्र अपना लिया है।
पिछले चार सौ वर्षोमें सौ सवा सौ पुतगाली शब्द हिन्दीमें यहां यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि जैनोंका
पहुँच गये और हिन्दी में रच पच गये। तब यह कैसे हो प्राचीनतम या मादि-साहित्य प्राकृतभाषा में है। पर उन्होंने
सकता है, कि जैनोंके द्वारा शब्दोंक लाने लेजानेका काम किसी भी भाषाविशेषका गुलाम न बनकर सभी भारतीय
सब दिशाओं में न हुमा हो। इतना ही नहीं, उनके रूपों, भाषाओंको अपनाया । अपभ्रश, तामिल और कबद
ध्वनियों, हिज्जे (SPellings) और अर्थोमें भी कुछ न भाषाभोंकी मींव डालने वाले भी जैन ही हैं। इन भाषाओं के
कुछ परिवर्तन अवश्य हुभा होगा। क्या किमीने इस ओर अतिरिक संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि
ध्यान दिया था। इन बातोंका पता लगानेके लिए जैन में भी जैन साहित्यकी खूब रचना हुई है और ज्ञान
साहित्यका अध्ययन किया ? विज्ञानका कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसमें जैन विद्वानों, + पुरातन जैन-वाक्य-सूचीकी भूमिका पृ०२।