Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 208
________________ किरण ६] श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ - - पर यदि फिर उतरना न हो तो सौदी (निसेनी) बेकार हो एक शत्रुको उपकारादिके द्वारा अपनाकर उसके सहारेसे जाती है अथवा अभिमत स्थानपर पहुँच जानेपर यदि फिर दूसरे महाहानिकारक प्रबल शत्रुका उन्मूलन (विनाश) किया लौटना न हो तो मार्ग बेकार होजाता है। परन्तु उससे पूर्व जाता है। राग-दू'ष और मोह ये तीनों ही प्रात्माके शत्रु हैं, अथवा अन्यथा नहीं। कुछ लोग एकमात्र साधनोंको ही साध्य जिनमें राग शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकार है और समझ लेते हैं-असली साध्यकी और उनकी दृष्टि ही नहीं अपने स्वामियों सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यार्मिक भेदसे और भी होती-ऐसे साधकोंको लक्ष्य करके भी पं० टोडरमल जीने भेदरूप हो जाता है। सम्यग्दृष्टिका राग .पूजा-दान-प्रतादिकुछ वाक्य कहे हैं। परन्तु वे लोग दृष्टिविकारके कारण चूंकि रूप शुभ भावोंके जालमें बँधा हुआ है और इससे वह मिथ्यादृष्टि होते हैं अतः उन्हें लक्ष्य करके कहे गये वाक्य अल्पहानिकारक शत्रुके रूपमें स्थित है, उसे प्रेमपूर्वक भी अपने विषयसे सम्बन्ध नहीं रखते और इसलिये वे प्रमाण अपनानेसे अशुभगग तथा •ष और मोहका सम्पर्क छूट कोटिमें नहीं लिये जासते-उन्हें भी प्रमाणबाह्य अथवा जाता है, उनका सम्पर्क छूटनेसे आत्माका बल बढ़ता है प्रमाणाभास समझना चाहिये । और उनसे भी कुछ भोले और तब सम्यग्दृष्टि उस शुभरागका भी त्याग करनेमें भाई से ठगाये जा सकते हैं-दृष्टिविकारसे रहित आगमके समर्थ हो जाता है और उसे वह उसी प्रकार त्याग देता है ज्ञाता व्युत्पड पुरुष नहीं। जिस प्रकार कि पैरका कांटा निकल जाने पर हाथके कांटेको टोडरमल्लजीके वाक्य जिन रागादिके सर्वथा निषेधको त्याग दिया जाता अथवा इस प्राशंकासे दूर फेंक दिया जाता लिये हुए हैं वे प्रायः वे रागादिक हैं जो दृष्टिविकारके शिकार है कि कहीं कालान्तरमें वह भी पैरमें न चुभ जाया क्योंकि हैं तथा जो समयसारको उपर्युल्लिखित गाथा नं० २०१, उप शुभरागसे उसका प्रेम कार्यार्थी होता है, वह वस्तुतः २०२ में विवक्षित हैं और जिनका स्पष्टीकरण स्वामी उसे अपना सगा अथवा मित्र नहीं मानता और इसलिए समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनकी 'एकान्तधर्माभिनिवेशमला कार्य होजाने पर उसे अपनेसे दूर कर देना ही श्रेयकर रागदयोऽहंकृतिजा जनानाम्' इत्यादि कारिकाके श्राधार समझता है । प्रन्युत इसके, मिथ्यादृष्टिके रागकी दशा दूसरी पर पिछले लेखमें, कानजीस्वामी पर आनेवाले एक होनी है, वह उसे शत्रुके रूपमें न देख कर मित्रके रूपमें आरोपका परिमार्जन करते हुए, प्रस्तुत किया गया था-वे देखता है, उससे कार्यार्थी प्रेम न करके सच्चा प्रेम करने रागादिक नहीं हैं जो कि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्या- लगता है और हमी भ्रमके कारण उसे दूर करनेमें समर्थ दर्शनके अभावमें चारित्रमोहके उदयवश होते हैं और जो नहीं होना । यही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके शुभरागमें ज्ञानमय होनेसे न तो जीवादिकके परिज्ञानमें बाधक है और परम्पर अन्तर है-एक गगढ़पका निवृत्ति अथवा बन्धनन समता-वीतरागकी साधनामें ही बाधक होते। इमोसे से मुक्रिमें सहायक है तो दूसरा उममें बाधक है। इसी जिनशासनमें परागचारित्रकी उपादेयताको अंगीकार किया दृष्टिको लेकर सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको मोक्षमार्ग में गया है। परिगणित किया गया है और उसे वीतरागचारित्रका साधन यहाँ पर एक प्रश्न उठ मकता है और वह यह कि माना गया है । जो लोग एकमात्र वीतराग अथवा यथाख्यातजब सम्यक्चारित्रका लक्ष्य 'रागद्वेषको निवृत्ति' है, जैसा चारित्रको हो मम्यक्रचारित्र मानते हैं उनकी दशा उस कि उपर बतलाया गया है, तब सरागचारित्र उसमें सहायक मनुष्य जैसी है जो एकमात्र उपरके डंडेको ही सीढ़ी अथवा कैसे हो सकता है ? वह तो रागसहित होनेके कारण लक्ष्य- भूमिके उस निकटतम भागको ही मार्ग समझता है जिससे की सिद्धि में उल्टा बाधक पड़ेगा। परन्तु बात ऐसी नहीं है, अगला कदम कोठेकी छत पर अथवा अभिमत स्थान पर इसके लिये 'कंटकोन्मूल' सिद्धान्तको लक्ष्यमें लेना चाहिये। पड़ता है, और इस तरह बीचका मार्ग कट जानेसे जिस जिस प्रकार पैरमें चुभे हुए और भारी वेदना उत्पस करने प्रकार वह मनुष्य अपरके डंडे या कोठेकी छत पर नहीं पहुँच वाले कांटेको हाथमें दूसरा अल्पवेदनाकारक एवं अपने सकता और न निकटतम अभिमत स्थानको ही प्राप्त कन्ट्रोलमें रहनेवाला कांटा लेकर और उसे पैरमें चुभाकर, कर सकता है उसी प्रकार वे लोग भी न तो यथाख्यातउसके सहारेसे, निकाला जाता है उसी प्रकार अल्पहानिकारक चारित्रको ही प्राप्त होते हैं और न मुनिको ही प्राप्त कर

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