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अनेकान्त
[वर्ष १३ नहीं। इनमेंसे किमी एक अंगको ग्रहण करते हुये ज्ञानी जन अपनी सर्व शक्तिको दुरुपयोग कर रहे हैं। आजसे लगभग तत्सापेक्ष अन्य अंगको एक क्षणके लिये भी भूल नहीं पाते। ३०० वर्ष पूर्व श्वेताम्बराचार्य श्रीयशोविजयजी, उस समय पर जो इनमेंसे अपनो इच्छास किसी एक अंगको पकड कर दिगम्बर समाजमें दृढ स्यादवाद रूप सापेक्षताके प्राकारको क्वल उसके मात्रपरसे लेखक या वक्राके अभिप्रायका मिथ्या दिगम्बर समाजकी भृल सूचित करते हुए, “निश्चय नय - अनुमान लगाकर एकान्तरुप अग्निमें पुण्यरूप राखका ग्रहण पहिले कहें पीछे ले व्यवहार । भाषाक्रम जाने नहीं, जैन करनेके लिये यथार्थ श्रान्म स्वभावरूप रन्नको भस्म करनेमें, ममका सार" इत्यादि रूप जो कुछ लिख गये हैं, बड़े खेदकी निरपेक्ष अर्थको ग्रहण कर मिथ्या मार्गको पकड़नेमें और उस बात है कि उस ही को अपनी भूल स्वीकार करके यथार्थ अपनी कल्पनाको जिन प्रणीत मार्ग मानकर अपनी गणना मार्गका वर्जन करनेमें अर्थात् निश्चयसे पहिले व्यवहारको व्यवहार सम्यग्दृष्टिको श्रेणी में करनमें, नथा भगवान प्रात्माकी मुग्व्य रुप स्थापित करक यशोविजयजीके मतानुयायी बनकर रुचिस उन्मुख स्वयं ही निजाम हननके कारण बननेमें संतुष्ट अाज साधारण दिगम्बर समाज मिथ्यात्वमें सम्यक्त्वकी हो रहे हैं, ऐसे प्रात्मा प्रति नकार करनेवालोंमें वर्तमानमें रूपरेखाके दर्शन करने लगी है। व्यवहाराभाषियों की संख्या ही विशेष ध्यान देने योग्य है। हमारे 'व्यवहार करते-करते निश्चय हो जायेगा' इसको ही दोनों
उपरोक्त दोनों मन्तव्योंमें प्रथमको व्यवहार और दृमरेको अंगोंकी सापेक्षता कहकर मात्र एकान्तकी पुष्टि करने वाले
निश्चय मंज्ञायें अर्पित की गई हैं। जो केवल शाब्दिक ऐसे उभयावलम्बी अंधकाग्में भटके हुये भव्य जीवोंको
नहीं बल्कि मार्मिक है । यह ठीक है कि परस्पर माक्षेप दो प्रकाश दर्शानेकी आवश्यकता है।
विरोधी धर्मोको बारी-बारीसे अपनी-अपनी अपेक्षा मुख्य ऐसी भ्रमपूर्ण धारणासे सावधान करते हुए परम कृपालु गौण करके कथन करनेकी पद्धतिका नाम स्याद्वाद या प्राचार्य भगवन्तोंने प्र०मा० गा २६६४ तथा भावपाहुड अनेकान्तवाद है । जिस प्रकारसे निश्चयको धर्म कहा है गा० ८३ टीकामें ऐसे साध्वाभपियों तथा जेनाभामियोंको बिल्कल उसी प्रकारसं यदि व्यवहारको भी धर्म माना लौकिक जनों तथा अन्य मतियोंकी कोटि में बिठाकर, इस जायगा तो निश्चय और व्यवहारमें कुछ भेद रहेगा नहीं। प्रकारकी कोरी बाह्य क्रियाओंमें अपने पुरुषार्थको व्यर्थ न सिलिये यह माव्यता गौमाता कथन करनमें ही भिन्न-भिन्न खोनेका आदेश किया है।
वत्राकी विवक्षाओंके कारण पा सकती है परन्तु अर्थ ___ फिर इन दोनों परम्पर विरोधी भामने वाले वाक्योंका ग्रहण करनेमें नहीं । अर्थ ग्रहण करनेमें तो जो अंग नियत अर्थ कैसे किया जाये। इस मकटमें, आज नक अनेक प्रकार- रूप से हेय हैं वह हय ही रहता है और जो उपादेय है की क्षतियों तथा विपत्तियोंसे जैन शामनकी रक्षा करके उसका उपादय रूपमें ही ग्रहण होना है। अपनी इच्छासे उसे अचल रूपमें स्थायी रखने वाला वह अनुपम स्याद्वाद- अन्यथा ग्रहण नहीं किया जा सकता । यदि ऐसा न होता चक्र ही महायक हो सकता है। पर आश्चर्य है कि आज तो पंचाध्यायीकारको 'निश्चय ही उपादेय है अन्य सब उस अमूल्य रत्नकी परख खो बैठनेक कारण जैन भी उपरोक हेय है। ऐमा नियम करनेकी आवश्यकता न पड़ती। मिथ्या सापेक्षता रूपी बनावटी पापानको अपनानेमें अपना --- गौरव मानने तथा उस अतुल निधानका तिरस्कार करनेम युक्रि और श्रागम दोनोंसे अविरुद्ध अस्तित्व नास्तिन्त्र
आदि एक दुसरेके प्रतिपक्षी अनेक धर्मोके स्वरूपको ..."समस्तविषयमपि गगमुन्सृज्य । पंचास्तिकाय '७२. निरूपण करने वाला सम्यगनेकान्त है। xसंयमतपोभारोऽपि मोहबहुलनया श्लथीकृत शुद्धचेतनव्यव
राज. वा. ११६ हारो मुहर्मनुप्यन्यवहारण व्याघूर्णमनन्वादेहिककर्मानिवृती विवक्षितो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो, गुणो विवक्षो न लौकिक इन्युच्यने । प्र०मा० सन्वदीपिका टीका गा. २६६ निरान्मकस्ते॥
स्वयंभृस्तोत्र ॥५३॥ लौकिक जन तथा अन्य मनि कई कहै है जो पूजा अादि x स्वयमपि भूतार्थत्वादभवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । शुभ क्रिया तिनि विर्ष श्रर व्रत क्रिया महित है सो धर्म है अविकल्पवदतिवागिव स्यात् अनुभवैकगम्यवाच्यार्थः । सो ऐसे नाहीं है।
भा.पा. गा. ८३ टीका यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् तस्मान् ।
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