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[वर्ष १३ क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है?
[२२५ हो उपदेश मुख्यतासे सर्वत्र योजनीय है। निश्चयके लिये की भावनाको तीव्र और तीव्रतर बनानेमें उद्यमशील रहना हो तो व्यवहार भी सत्यार्थ है। और बिना निश्चयक व्यव- चाहिए। ऐमा उपदेश है। हार भी सारहीन है।+
परन्तु यह बात तभी सम्भव है जबकि दोनों अंशोंमेंसे फिर व्यवहार क्रियायें क्यों ?
एक अर्थात् व्यवहारको प्रसद्भुत तथा दूसरे अर्थात् निश्चयसाधक दशामें व्यवहार तथा निश्चय दोनों ही अंश का सद्भूत, एकका विभाव दूसरका स्वभाव, एक
को सद्भूत, एकको विभाव दूसरेको स्वभाव, एकको दोष होते अवश्य है। इसका निवेध नहीं। ज्ञान इन दोनोंको
दुसरेको गुण, एकको अशुद्ध दूसरेको शुद्ध, एकको आश्रय अपने २ रूपसे (एकको हेय तथा दूसरेको उपादेय) जानता भी
बन्ध रूप अधर्म और दुसरेको संवर निर्जरा रुप धर्म है। इसका भी निषेध नहीं। अल्प शक्रिक कारण वह अंश
समझा जाये। इस प्रकारका भेद विज्ञान किये बिना प्रयोजनहोता है। उसे छोड़ देनेका भी उपदेश नहीं है। क्योंकि
की सिन्द्धि नहीं और इसीलिये इस व्यवहारको कथम्चिन् जब तक राग अंश विद्यमान है उसका कार्य अवश्य होगा। अधर्म कहना बाध्य नहीं समझा जा सकता । कथञ्चित् यदि शुभको छोड़ा तो वही अशुभ रूप होगा। राग रूप कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि किसी अपेक्षा इसमें स्वभाव बाह्य क्रियाओंको छोड़नेसे रागका प्रभाव नहीं होगा परन्तु
रुप धर्मपना भी है, परन्तु यह है कि वास्तवमें अधर्म अन्तरंगमेंसे उस रागके प्रति कारण अर्थात् रुचि या उपादेय
(विकार) होते हुए भी विप्रतिपत्तिके समय, संशय उम्पन
(विकार) ह बुद्धिको छोड़नेसे ही उसका लोप हो सकता है। इसलिए
हो जाने पर या मन्दबुद्धि किसी शिष्यको निश्चय धर्मका निषेध है व्यवहारमें उपादेय बुद्धि रुप पकड़ रखनेका । क्योंकि
स्वरूप समझाते समय इसका प्राश्रयज्ञानमें लिये बिना नहीं जब तक उसके प्रति उपादेय बुद्धि है तब तक उसका ज्याग
बनता। इसलिये निचली दशा में किसीके लिये वस्तु स्वरूप नहीं हो सकता। जब तक उसका त्याग नहीं होता (अर्थात
या निश्चयधर्मका ज्ञान करते समय उपरकी सिद्धिके लिये उसका लोप नहीं हो जाता) तब तक मोक्ष नहीं होता।
यह साधन रुपमें कार्यकारी होता है। इसलिये उपचारसे इसलिये सदैव साथ-साथ वर्तते हुए उस व्यवहार अंशके प्रति
इसे धर्म कहा जाता है निश्चयसे नहीं । पर यह केवल 'मेरा अपराध है। ऐसी बुद्धि बनी रहनी चाहिये । उसका
स्थापना करने योग्य है (जानने योग्य है) पर अनुसरने योग्य भार कर्मोंपर डालकर स्वयं निदोष नहीं बनना चाहिये।
नहीं (प्राचरने योग्य नहीं +। उसको श्रीदयिक भाव न समझकर अपना विभाविक पारि- व्यवहार णामिक भाव ही ग्रहण करना चाहिए (जयधवला भा०१ व्यवहार नथा निश्चयके उपरोक नामान्तर युगलोंमेंसे पृ. ३११) इस प्रकार समझते हुये सदा ही उसके वर्जन- मबको नो जिस किसी प्रकार भी स्वीकार कर लिया जाता है + यह व्यवहार निश्चयके लिये हो तो वह व्यवहार भी पर व्यवहारका अधम माज्ञत स्वीकार करने आपत्ति श्राती सत्यार्थ है और विना निश्चयक व्यवहार सारहीन है।
है। और उमका कारण केवल वह मिथ्या मान्यता है जिसके
है कार्तिक्यानुप्रेक्षा टीका ४६४)
आधार पर कि जीव इसे निश्चयमें महायक रूप जान कर * कुशील शुभाशुभ कर्मभ्यां सहराग संसर्गों प्रनिविद्धौ बंध
यह कहा करता है कि 'व्यवहार करते करते निश्चय हो हेतुत्वान् । स० सा. श्रात्मख्याति टीका १४७ ।
__जायेगा।' उसी मिथ्यामान्यताको अन्तरसे पूर्णतया धो देनेके x वैचित्र्यावस्तुनिनां स्वतः स्वस्यापगधतः ॥ पंचाध्यायी लिये ही परम कृपालु श्रीकानजी स्वामीके प्रवचनोंका भार उत्तरार्ध ६॥ परद्रव्य ग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान् । + नैव यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ । वस्तु बध्येतानपराधो न म्वद्रव्ये संवृतोत्पत्तिः ।स.मा. कलश१८६। विचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलम्बि तज्ज्ञानम् ॥१३॥ कषायोंको अपराध रुप जाने इनसे अपना पान जाने तब तस्मादाश्रयणीयः केषांचित् स नयः प्रसंगस्वात् । अपि अपनी दया कषायभावके प्रभावको मानता है इस तरह सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्पबोधवताम् ॥१३॥ अहिंसाको धर्म जानता है। का० अनु० टीका ४१२ पंचाध्यायी पूर्वार्ध। ये परमं भावमनुभवन्ति तेषां.... अहवा मोदइएण भावेण कसानो। पदं णेगमादिचउण्ह शुद्ध नयएव"परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये अपरम बयाणं । तिण्हं सामायाणं पारिणामकुण भाषण कसाना; भावमनुभवन्ति तेषां "म्यवहार नयो"परिज्ञायमानस्तकारणेण विणा कज्जुप्पत्तीदो । जय ध० भाग १ पृ.१५. दावे प्रयोजनवान् । स.सा. प्रात्मख्याति टी० गा.१२.