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. ॐ अहम
स्ततत्वसधातर
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
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वाषिक मुल्य ६)
एक किरण का मूल्य ॥)
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नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ।
वर्ष १३ । किरण
चारमेवामन्दिर, C दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली
फाल्गुन, वीरनिर्वाण-संवत २४५१, विक्रम संवत २०११
मार्च
१६५५
समन्तभद्र-भारती
देवागम यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि ख-पुष्पवत् । मोपादान-नियामोऽभून्माऽऽश्वासः कार्य-जन्मनि ॥४२॥
(क्षणिकैकान्तमें कार्यका मत् रूपसे उत्पाद तो बनना ही नहीं, क्योंकि उपसे सिद्धान्त-विरोध घटित होता हैक्षणिक एकान्तमें किसी भी वस्तुको सर्वथा सत्-रूप नहीं माना गया है । तब कार्यको प्रमत् ही कहना होगा।) यदि कार्यको सर्वथा असत कहा जाय तो व आकाशके पुष्प-समान न होने रूप ही है। यदि असतका भी उत्पाद माना जाय तो फिर उपादान कारणका कोई नियम नहीं रहता और न कार्यकी उत्पत्तिका कोई विश्वास ही बना रहता है-गेहूँ बोकर उपादान कारणके नियमानुसार हम यह प्राशा नहीं रख सकते कि उससे गेहूँ हो पैदा होंगे, असदुत्पादक कारण उससे चने जौ या मटरादिक भी पैदा हो सकते हैं और इसलिये हम किसी भी उत्पादन कार्यके विषयमें निश्चित नहीं रह सकते; सारा ही लोक-व्यवहार बिगड जाता है और यह सब प्रत्यक्षादिकके विरुद्ध है। न हेतु-फल-भावादिरन्यभावादनन्वयात् । सन्तानान्तरवन्नकः सन्तानस्तद्वतः पृथक् ॥४३॥
. (इसके सिवाय क्षणिकैकान्तमें पूर्वोत्तरक्षणों के ) हेतुभाव और फलभाव आदि कभी नहीं बनते; क्योंकि सर्वथा अन्वयके न होने के कारण उन पूर्वोत्तर क्षणों में सन्तानान्तरकी तरह सर्वथा अन्यभाव होता है। (यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर क्षणोंका सन्तान एक है तो यह ठीक नहीं है। (क्योंकि) जो एक सन्तान होता है वह सन्तानीसे पृथक नहीं होता-सर्वथा पृथक्पमें उसका अस्तित्व बनता ही नहीं।' अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् । मुख्यार्यः संवृत्तिर्न स्याद् (नास्ति) विना मुख्यान संवृतिः॥
'यदि (बौद्धोंकी ओरसे ) यह कहा जाय कि अन्यों में अनन्य शब्दका यह जो ब्यवहार है-सर्वथा भिन्न चित्त-क्षणोंको जो सन्तानके रूपमें अनन्य, अभिन्न अथवा एक श्रान्मा कहा जाता है-वह संवृति है-काल्पनिक अथवा