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अपभ्रंश भाषाका पार्श्वनाथ चरित
( परमानन्द शास्त्री) कुछ वर्ष हुए डा. हीरालालजी एम. ए. नागपुरने नाम 'कमलश्री' था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे यंदण, नागरी प्रचारिणी पत्रिकामें अपने लेग्यमें कवि अमवालके मोणिग और लोणामाह। इनमें पाहू लोणा जिनयात्रा 'पासणाहचरिउ' की एक अपूर्ण प्रतिका उल्लेख किया था। श्रादि प्रशम्तकार्यों में बव्यका विनिमय करने थे। भनेक उसी समयसे मैं उसकी दूसरी पूर्ण प्रतिको तलाशमें था। विधान और उद्यापनादि कराते थे। भाग्यसे उपकी एक प्रति जयपुरके नेगपंथी मन्दिरके शाम्न- उन्होंने कवि 'हल्ल' की प्रशंसाकी थी, जिसने 'मल्लिभंडारमें मिल गई। प्रनि यद्यपि कुछ अशुद्ध है परन्तु पूर्ण नाथ चरित की रचनाकी थी । स्लोणामाने अनेक यात्रा है। उपका.मंक्षिप्त परिचय मय श्रादि अन्त प्रशस्तिके यहां और प्रतिष्ठाए कराई थीं और उन्हींकी प्रेरणासे कवि दे देना ही इस लेखका प्रमुख विषय है।
असवालने इस ग्रन्थकी रचना का जिसे उन्होंने अपने ज्येष्ठ इस ग्रंथमें जैनियोंके नेवीपर्व नीर्थकर श्रीपार्श्वनाथका जीवन भ्राता सोणिगक लिये बनवाया था। परिचय दिया हुआ है । ग्रन्थमें कुल १३ मंधियां दी हुई हैं प्रन्थकी प्राय प्रशस्तिमें लिखा है कि उक्र चौहानवंशी जिनमें पार्श्वनाथकी जीवन-घटनाओंका उल्लेख किया गया है। राजा भोजराजके राज्यकालमें सं०१४७१ में वहां बडा भारी इम ग्रन्थक का कवि अमवाल हैं जो पं० लचमणके मुपुत्र प्रतिष्ठोत्सव हुआ था जिसमें रत्नमयो बिम्बकी प्रतिष्ठाकी गई
और 'गुन्नराडवंश' में उम्पन्न हुए थे। यह 'गलगड' वंश थी । इससे स्पष्ट है कि उस समय करहल जन धनसे सम्भवतः 'गोलाराड' वंश ही जान पड़ता है। कविने यह मम्पन था। ग्रंथ कुशाती देशमें स्थित करहल नामक ग्राममें विक्रम संवत् पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति १४७६में भाद्रपद कृष्णा एकादशीको बनाकर समाप्त किया प्राविभाग था और जिसे कविने एक वर्ष में बनाया था। जैसा कि ग्रंथकी
सिवमुहसर सारंगहो सुयसारंगहो सारंग कहो गुणभरित्रो । अन्तिम प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है :
भणमिभुश्रणमागहोखममारंगहो पणविविपाजणहोचरित्रो। दुगवीर होणिवुई वुच्छराई सत्तरिसहुंचउसयवत्थराई। भावियमिरिमलसंघचरणु, सिरिवलयारयगण वित्थरणु। पच्छडासाराणवावक्कमगयाइ,पउणसादासहुच उदहमयाई पर हरिय कुमय पोमायरिउ, प्रायग्यिमामि गुणगणभरित। भानवनम एयारमि मुणेह, परिसिक्केपूरिउ गंथु एहु॥ धरमचंदुव पहचंदायरियो. पायरियरयणजम पह धरियो।
कविने मूलसंघ स्थित दिसंघबलात्कारगणके प्राचार्य धरिपंचमहब्वयकामरण, रणुकयपंचिदिय संहरणु । प्रभाचन्द्र पद्मनन्दि और उनक पधर शुभचंद्र और धर्मचंद
घर घम्म पयामउ सावयह, वय वारि मुणीमर भावयहं । का समल्लेख किया है जिससे ग्रन्थकर्ता उन्हींकी आम्नायका
भत्रियण मण पोमाणंदयरु, मुणिपोमणंदि तहो पट्टवरु । ज्ञात होता है।
हरिसमउणभवियगु तुब्छमणु, मणहरइपट्टजियवरभवणु। कविने इस ग्रन्थको जब रचना की, उस समय करहल
वरभवण भवणि जस पायडिउ, पायडु ण अणंग मोहणडिउ । में चौहान वंसी राजा भोजदेवका राज्य था । उस समय
गडियावयरयणत्तय धरगु, धर रयणत्यगुणवित्थरणु । यदुवंशी अमरसिंह भोजराजक मंत्री थे, जो जनधर्मके संपा
घत्तालक ये । इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह,
करमासह, ततोपवरससि णामेसहससि मुणिपयपंकयचन्द हो।
न ममरसिह और नक्षत्रमिह लक्ष्मणसिंह । अमरसिंहकी पत्नीका
कुलुखित्तिपासमि पहु बाहासमि, संघाहिवहो वहोअर्णिदहो। कुशात देश मूरसेन देशके उत्तरमें वशा हुआ था और इयं जंबूदीवहं पहाणु, भरहकिउ णं पुर एव णणु । उसकी राजधानी शौरीपुर थी जिस यादवोंने बसाया खेत तरिदमुकुपट्ट रम्मु, दो वीसमु जिण कल्लागु जम्मु । था। भगवान नेमिनाथका जन्म भी शौरिपुरमें बतलाया कालिदिय सुरसरिममगाई. दस्साछणयंतरि पक्खुणाई। जाता है। जरासंधक विरोधके कारण यादवोंको इस प्रदेशको करहलु वरणयरू करहलुसुरम्मु मणिवपरिपालणि पयलहइसम्भु छोड़कर द्वारिकाको अपनी राजधानी बनानी पड़ी थी। वर्त- चहुवाणवंसेअरिकुरुहणाउ, भोइवभोयंकिउ भोयराउ । मानमें यह ग्राम इसी नामसे अाजभी प्रसिद्ध है।
णाइक्कदेवि सुउ अरिमयंदु, चंदुव कुवलय संसारचंदु ।